कविता

आसार

परेशानियों में गुज़ारे हुए लम्हे याद आते हैं
वो कैसे-कैसे लोग, बार-बार याद आते हैं |
नाग-से फन फैलाए, रहते रहे ज़रूरतमंद
शक्ल से कितने वो,लिजलिजे नज़र आते हैं |
मकां को घेरते रहे , कलेवा करने की ख़ातिर
घर उनके जाने पर सदा, नदारद नज़र आते हैं |
हमें नहीं चाहत रही कभी, उनके घर खाने की
फिर भी पल-पल वो, नज़र बचते नज़र आते हैं |
तारीक़ियों में और तारीक़ी घोलते हैं बेसबब
रोशनियों से बेहद वे, दूर खड़े नज़र आते हैं |
दर्द की सुनते ही आवाज़ , बंद करते हैं कान
वे तो सुखों में पूरी ही तरह ,डूबे नज़र आते हैं
शैतानों के घर बजती हैं, क्यों बार-बार घंटियाँ
अब क्यों लड़ाई के हाय ! आसार नज़र आते हैं |
— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘