क्या कहूँ !! क्या कहूँ मैं ???
क्या कहूँ!! क्या कहूँ मैं???
मूकदर्शक हूँ मैं
ह्रदय से अधीर निःशेष
मन प्रवेश कर चुका है
तुम्हारा सुन्दर वेश
तुम्हारे शब्दों की कान्ति
विवश करती है परिणय को
पर….बाकी है अभी
विरह-मिलान का खेल
पर सुनो….
पद्मिनी बन न अकेले
जलूँगी प्रचंड ज्वाला में
तुम्हे भी जलाऊँगी
विरह की हाला में
क्योंकि….
स्वर्ण कान्तिरूपी प्रेम
जलकर हीं निखरता है
बारिश में होता तृप्त
संतृप्त कर जाता है।
“सधु”
अच्छी कविता !