स्वर
मनु ने अंगडाई ली और बिस्तर छोड़ दिया। उसे याद है कि उनके रहते वह कभी इतनी सुबह नहीं उठी थी। वे हमेशा पहले उठते थे और एक आध बार तो उसे भी पहले उठने को कह चुके थे। मगर उनके रहते तो वह कभी इतनी सुबह नहीं उठी थी। सुबह तो उठना ही था, आज कोर्ट में केस की सुनवाई थी। वह जानती थी कि “सच की लड़ाई आसान नहीं होती” “सच का साथ देने के लिए हिम्मत चाहिए होती है” “सच एक न एक दिन सामने आ ही जाता है” आदि-आदि और अनादि भी।
पिछले साल तो इतनी सुबह इतनी धुंध नहीं होती थी। या शायद होती भी हो, उसने इतना ध्यान ही कहां दिया। इन चीजों पर ध्यान तो वह कभी नहीं देती थी अब जाने क्यों वह हर बात का ख्याल रखती है। इसी धुंध में अखबार के साथ वह गार्डेन में बैठी थी कि दूधवाला गेट पर आया।
“क्यों रे! थोड़ा जल्दी नहीं आ सकता। सुबह से चाय की तलब हो रही थी और एक तू है कि बस्स…..”
”बीबीजी! धुंध बहुत ज्यादा थी सुबह इसलिए…..”
”केवल तेरे लिए ही धुंध है। पेपर वाला तो टाइम से……”
अचानक मनु ने अपनी कर्कश आवाज़ कोमल कर ली। जैसे उसके भीतर किसी ने कहा हो “मनु ज़रा धीरे बोला करो। इतना तेज और कड़वा बोलने से बताओ तुम्हारा कौन सा काम बन जाएगा। बातें प्यार से भी तो कीं जा सकती है। हर बात पर डाँटना-फटकारना ज़रुरी है क्या?”
मनु की तनी हुई भौहों को ढीला होते देख दूधावाले ने सफाई देने की कोशिश की।
“बीबीजी! वो कल मेरी…..”
”बस-बस ठीक है। कोई बात नहीं। कल से दूध कम कर दे।“
”कितना बीबीजी?”
”आधा लीटर ही काफी होगा”
”यह तो बहुत कम हो जाएगा”
”हां तो?” मनु ने भौंहें चढ़ाकर कहा। फिर जैसे उसके भीतर आवाज आई “क्या मनु! बता देगी तो तेरा क्या जाएगा? वह तुझे खा थोड़े न जाएगा।“
”हां। अभी कुछ दिन कोर्ट-कचहरी दौड़ना है तो घर पर ज्यादा रहना नहीं है। इसलिए ज्यादा दूध लेकर कोई फायदा नहीं।”
”भैय्या जी का केस फिर शुरु हो गया क्या?”
”हम्म”
”देखना बीबीजी, हम केस जरुर जीतेंगे। सत का साथ तो परमात्मा देगा। देख लेना।“
मनु ने मन ही मन सोचा “हम? यह हम क्यों बोल रहा है?
”याद रखियो। कल से बस आधा लीटर।“
”जी जी बीबी जी”
मनु कुछ देर दूधवाले की खड़खड़ाती हुई साइकिल देखती रही। देखने के लिए और कुछ था भी नहीं।
****
मनु भिंडी की नोकों को तोड़-तोड़कर ताज़ा भिंडी चुन रही थी कि अचानक पीठ पीछे दो लोगों के फुसफुसाने की आवाज़ कान में पड़ी। मनु ने कान गड़ा दिए।
“अरे न्यूज़पेपर में नहीं पढ़ा था क्या? वो इंजीनियर का केस जिसने गलत रिपोर्ट देने से मना किया तो ठेकेदारों ने मरवा दिया था।“
”हां हां…रविन्दर नाम था ना”
”हां….वही,….उसी की पत्नी है। केस चल रहा है। चलता रहेगा। अकेली लड़ रही है बेचारी। अपने मुहल्ले वाली है।“
”ओहो…बहुत बुरा हुआ।“
”लेकिन हिम्मत तो देखो। कहते हैं ठेकेदारों ने केस वापस लेने के लिए धमकी दी थी। मगर सीना ठोक के बोली क्या बिगाड़ सकते हो बिगाड़ लो। पति रहा नहीं। बच्चे हैं नहीं। क्या बिगाड़ेंगे और किसके लिए बिगाड़ेंगे।“
”फिर तो सलाम ठोंकना चाहिए इसे।“
”हां। जीवन का और कोई लक्ष्य ही नहीं। पहले पति लड़ता था अब ये लडाई लड़ रही है। देखते हैं कहां तक जाती है।“
मनु ने भिंडी चुनकर सब्जीवाले को दी और उन दोनों महाशयों को देखने के इरादे से सब्जी बाजार की नेत्रों से परिक्रमा करते हुए नज़रें उन महाशयों पर टिका दी। लंबा, गोरा मगर पतला और दूसरा हृष्ट-पुष्ट मगर दूसरे के मुकाबले कम लंबा था जो मनु को देख मुस्करा दिया।
“नमस्ते मनु बहन।“
मनु की तनी हुई भौहों ने उस से पूछा ”आप कौन?”
”मैं आप के मुहल्ले का हूँ। प्रेमा बुआजी के घर का हूँ। उनका भतीजा।“
”अच्छा। शुक्ला जी के बगल में रहते हैं?”
”हाँ जी। हाँ जी।“
”हम्म”
”जी अगर कभी भी कोई भी ज़रुरत हो तो बताईएगा जरुर। हम सब साथ हैं आपके। मुहल्ले के जिम का अध्यक्ष हूँ। कभी मदद पड़े तो दस-पन्द्रह लोगों को इकठ्ठा करने से नहीं हिचकेंगे। आखिर आप हमारे मुहल्ले की ही हैं। रविन्द्र जी बड़े भले आदमी थे। बहुत लोगों का भला करके गए।“
मनु ने चश्में को झुकाकर उसे देखा। जैसे फिर अंदर ही अंदर कोई मनु से कह रहा हो “हर किसी को दुश्मन की तरह क्यों देखती हो मनु। अच्छे लोग भी होते हैं और अगर कोई बुरा है तो अपने लिए बुरा है तुमसे तो हर कोई बुरा नहीं करता न। तो फिर सबको बुरा समझने की यह आदत कहां तक ठीक है। मुस्कुरा दे जरा। अच्छा ही बोल रहा है। तेरे भले की बात कर रहा है।“
मनु मुस्कुरा दी “ठीक है भाईसाहब। फिर मिलेंगे” कहती हुई घर की ओर चल दी। तरकारी के एक झोले को कंधे पर चढ़ाए और दूसरे को हाथ में लटकाए वह सुस्त कदमों से खेल के मैदान के पास से गुजर ही रही थी कि मैदान में बच्चों के कोलाहल ने ध्यान खींच लिया। उस झुंड से दो-तीन बच्चे उसे देख रहे थे और वो उन्हें देखते हुए जा रही थी। तभी उनमें से एक लड़का दौड़ कर उसके पास आया और लपक कर उसके हाथ से लटक रहे झोले को ले कर बोला “चाची जी! मैं आपको घर तक छोड़ आता हूँ।”
मनु बराबर में चलती रही। कुछ याद कर के बोल पड़ी।
“क्यों रे! तूने ही उस दिन आम की पूरी डाली तोड़ डाली थी न। और जब तक मैं पेड़ तक पहुंचती; तू चारदीवारी कूद के भाग खड़ा हुआ था ना।“”
““ही … ही …जी चाची जी।“ बच्चा खींसे निपोरते हुए बोला। “मैं ही था।“”
मनु ने उसपर तीव्र दृष्टि डाली। तभी उसके मन के भीतर से फिर किसी ने आवाज़ लगाई “मनु। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। तुम बच्चों से इतना क्यों चिढ़ती हो? आखिर बच्चे शैतानी नहीं करेंगे तो क्या मेरे और तुम्हारे जैसे अधेड़ उम्र के लोग करेंगे? और तुम क्या बच्चों से चिढ़ती हो…तुम तो खुद एक बच्ची हो। जितना ज़िद्द तुम करती हो उतना तो बच्चे भी नहीं करते। अबकी कोई गेंद आ जाए तो लौटा देना। खेलने दो बेचारों को।“”
मनु फिर नरम पड़ गई। “आम तो अभी नहीं लगे हैं। अमरूद खाएगा?”
फिर क्या था इतना सुनते ही बच्चा खुश। तेजी से कदम बढ़ाते हुए और मनु को लगभग दौड़ाते हुए घर तक ले गया।
*****
बच्चे ने अभी अमरूद तोड़ना शुरू ही किया था कि मनु को गेट खोलने की आवाज़ आई।
“तू अमरूद तोड़। मैं ज़रा देखूँ कौन है गेट पर।” जाते-जाते पीछे मुड़कर बोली “देख! सारे मत तोड़ना। ज्यादा तो कच्चे हैं। उन्हें रहने देना।”
गेट के पास पहुंची तो देखा तनु अंदर से गेट बंद कर रही थी।
“अरे तनु! कैसी है री? अकेली आई है? आनन्द साथ नहीं आए?”
“नहीं दी! वो छोटे को थोड़ा बुखार है तो उनके पास ही छोड़ के आई हूँ। तुम्हारी चिंता हो रही थी सो देखने चली आई।“
“क्या हुआ नन्हें को? फिर भीग गया क्या? डॉक्टर को दिखाया?”
““हाँ …हाँ दिखाया। अब ठीक है। फिर दोस्तों के साथ पानी में खेल के घर आया था। आप तो जानती हो दी…इसे सर्दी कितनी जल्दी पकड़ती है। और तुम बताओ दी कैसी हो? जीजू के बाद तुम बहुत दुबली हो गई हो।”
“नहीं तो। बिल्कुल भी नहीं। मुझे क्या होगा। हट्टी-कट्टी तो हूँ। देखा नहीं ठेकेदार सब डर के बिल में घुस गए।“
“अरे हाँ दी! मैंने सुना है कि वो आपको धमकाने आए थे…केस वापस लेने के लिए”
“हाँ आए तो थे।”
“फिर?”
“फिर क्या! मैंने कहा घर लूटना है तो घर लूट लो। मुझे जान से मारना है तो जान से मार दो। उन्होने धमकाया कि सारा खानदान खत्म कर डालेंगे। मैंने कहा -वो तो मेरे पति को मारकर तुम पहले ही कर चुके हो। हंसने लगा। बोला – मैंने तो पहले ही तुम्हें चेताया था। तुम अपने पति को रोक नहीं सकी तो अंजाम तो भुगतना ही था। अब अगर केस वापस नहीं लोगी तो तुम भी जान से जाओगी।“
लॉन में पड़ी बेंच पर बैठते हुए तनु ने पूछा “फिर दी?”
मनु ने अपनी खिसकती पशमीना शॉल को और ऊपर ओढ़ते हुए कहा “मैं क्यों पीछे हटने लगी तनु। मेरे पास अब बचा ही क्या है खोने को जो मैं उस पीठ पीछे वार करने वाले कायर से डरती। धोखे से उन्हे बुलाकर मारा था….उसी सड़क पर जिसका ठेका लेकर ये ठेकेदार साले जनता का पैसा मिट्टी कर रहे थे।” मनु की आँखें कहीं दूर देख रही थीं। जैसे कोई फीचर फिल्म उसकी आँखों के सामने चल रही हो और उसे देख-देख वह मनु को जवाब दे रही हो।
तनु उसकी तंद्रा को तोड़ते हुए बोली “दी! भगवान न करे अगर सच में उन्होने आपको मार दिया तो?”
“तो क्या मनु! मैं क्या मौत के डर से पीछे हट जाऊं? तनु जिन लोगों के सामने उन्होने घुटने नहीं टेके मैं कैसे टेक दूँ। उनको बुरा नहीं लगेगा। और मर जाऊँगी तो अच्छा ही है ऊपर जाकर जल्द से जल्द उनको मुंह तो दिखाने के काबिल रहूँगी। उनसे आँख से आँख मिलाकर यह तो कह सकूँगी कि तुम अपनी मनु को जितना कम आँकते हो उतनी हूँ नहीं। और अगर जीती रही तो उनके ही आदर्शों के लिए लड़ूँगीं।“ मनु आगे भी बहुत कुछ कहना चाहती थी मगर उसे फिर एहसास हुआ कि उसके अंदर कोई बोल रहा हो “मनु! तुम कितना बोलती हो। कभी ध्यान दिया करो कि सामने वाला सुन भी रहा है कि नहीं। जो बोल रही हो वह सामने वाले के काम का है भी या नहीं। बस बोलती चली जाती हो बोलती चली जाती हो। यह मूर्खता की निशानी है।“
थोड़े देर के लिए शान्ति छाई रही। फिर तनु ने कुछ याद करते हुए कहा।
“एक मिनट दी। आपने अभी-अभी कहा कि ठेकेदार ने आपको चेताया था। इसका क्या मतलब हुआ दी?”
मनु ने मुस्कुराकर सिर झुका लिया। तनु उसकी सारी भंगिमाएँ देखती रही। थोड़े देर ध्यान-मग्न रहने के बाद उसने बोलना शुरू किया।
“तनु! उन दिनों…”
“किन दिनों दी?”
“उन दिनों जब तुम्हारे जीजा इन सब चक्करों में पड़े थे।”
“अच्छा”
“मैं इनसे बहुत लड़ती थी। क्या-क्या दुहाई नहीं दी मैंने, ताकि ये अपने आदर्शों से डिग जाएँ। मगर नहीं। बहुत प्यार से मेरी हर बात का जवाब देते थे। सब कुछ समझाते थे। मगर मैं तो ढींठ थी। सोते हुए को तो जगा भी सकते हैं। मगर मैं जो सोने का नाटक कर रही थी सो कैसे जागती। जानती थी उनके आदर्शों को और समझती भी थी। मगर फिर भी कुछ नहीं सुनती थी।“
“मगर क्यों दी?”
“इसीलिए तो ताकि जो घटा वो न घटता। मेरा घर बचा रहता।“ मनु ने शॉल को कसते हुए कहा “चल तनु अंदर चल। यहाँ ठंड बढ़ रही है। तुझे भी तो नन्हे की तरह जल्दी सर्दी पकड़ती है। तुझ पर ही गया है।”
सीढ़ियों पर ठहर के तनु बोली “आपको याद है दी?”
मनु ने जाली वाले दरवाजे के अंदर पहुँचकर केवल सिर हिला दिया। तनु भी अंदर आ गई और दोनों दरवाजों की सिटकनी चढ़ाते हुए बोली “आप कितनी बदल गई हो दी? पहले तो आप इतना नहीं सोचती थी। बस अपने काम से मतलब रखती थी।“
“यह तेरे जीजू का कमाल है तनु।”
“वह कैसे?”
मनु ने पानी गैस स्टोव पर चढ़ाते हुए कहा “जब तक वो थे मुझे समझाते रहते थे। ऐसा नहीं वैसा करो। यह सही है और वह गलत।” चायपत्ती डालते हुए बोली “मैं पक जाती थी और उनकी कोई बात नहीं सुनती थी।“
“अम्मा कहती थी कि तुम बचपन से ही जिद्दी हो।”
“हाँ और शादी के बाद तो मैं इनसे खूब लड़ती थी। कहती थी कि क्या-क्या सपने लेकर शादी की थी इंजीनियर पति से कि खूब पैसों का ढेर लगाएगा। पता होता की ऐसे घोंचू हो कि घर आई लक्ष्मी को ठुकरा दोगे तो शादी ही नहीं करती। ले लोगे ऊपर का पैसा, तो क्या जाएगा?”“
“जीजू कुछ नहीं बोलते थे”
“बोलते थे – नहीं लूँगा तो क्या जाएगा? ज्यादा से ज्यादा तुम्हारी यह तोंद थोड़ी कम हो जाएगी और क्या? मैं उबल पड़ती थी।“”
“हाँ दी। तुम्हें कोई मोटा कह दे तो उसकी तो शामत आ गई समझो।“
“हम्म। और मैं कहती थी कि मेरे बच्चे भूखों मरेंगे…देख लेना और वो मुझे समझाते थे – तो क्या हुआ मनु। किसी की हाय लेकर कम से कम टेड़े-मेढ़े तो पैदा नहीं होंगे।”
तनु ने ज़ोर से ठहाका लगाया “हा हा हा हा…जीजू से कोई नहीं जीत सकता। अरे दीदी…चायपत्ती उबल रही है….दूध कहाँ हैं।“”
“फ्रिज में है। ज़रा निकाल ला।”
तनु ने दूध को उबल रही चायपत्ती में गिराना शुरू किया।
“बस-बस”
“नहीं दी …थोड़ा और ….अभी रंग नहीं खिला है।”
“अब बस कर”
“हूँ। अब ठीक है”
दोनों खामोशी से चाय को बनते हुए देखते रहे।
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ड्राइंग रूम में चाय की पहली चुस्की के साथ तनु ने खामोशी की दीवार लांघी।
“हम्म। दी। चाय आप दि बेस्ट बनाती हो।”
“अरे कहाँ। चाय तो तेरे जीजू अच्छा बनाते थे।“
“हाँ। वही तो एक चीज़ उन्हें आती थी बनानी।“
“अकसर सुबह की चाय वे ही बनाते थे।”
अगले कई मिनटों तक ड्राइंग रूम में केवल चुसकियों की आवाज़ें गूँजती रहीं। तनु ने उठते हुए कहा
“लाओ दी। चाय पी ली हो तो कप अंदर रख दूँ।”
“नहीं। अभी थोड़ी बाकी है।”
तनु वापस सोफ़े पर बैठ गई। उसकी नज़र दीवार पर लगे उस फोटो फ्रेम पर अटक गई जिसमे यह जोड़ा मुस्कुरा रहा था। फिर ऐसे चौंककर बोली जैसे अचानक कुछ याद आ गया हो।
“दी। जब जीजू थे तब तो आप उनकी सुनती नहीं थी। अब कैसे उनके कहे पर चलती हो। अब क्या फर्क पड़ता है? अब तो वो हैं भी नही।”
“अब उनके स्वर हैं तनु।”
“स्वर?”
“हाँ स्वर।“
“स्वर? कैसे स्वर? मैं कुछ समझी नहीं?”
“पता है तनु। ऐसा लगता है कि वो नहीं हैं। मगर मेरे मन में उनके स्वर गूँजते हैं। ऐसा लगता है जैसे मेरे अंदर कोई उनकी आवाज़ में मार्गदर्शन कर रहा हो। मैं जो करती हूँ जहां जाती हूँ, उनके स्वर मेरी मदद करते हैं।”
तनु स्तब्ध सी कुछ देर मनु को देखती रही। फिर “स्वर …. जीजू के स्वर” फुसफुसाती हुई दोनों कप उठा लिए।
“तू रहने दे इन्हे यही”
“ठीक है।“ कहते हुए तनु ने कप टेबुल पर ही छोड़ दिए।
“अब चलती हूँ दी इससे पहले कि बहुत रात हो जाए।”
“ठीक है। चल तुझे गेट तक छोड़ दूँ।”
गेट पर आ कर दोनों गले मिलीं। “और कुछ हो तो बताना दी।”
“ठीक है। चल निकल धुंध बढ़ रही है।”
“बाइ दी।“
“बाई”
मनु गेट बंद कर उसको जाते हुए देखती रही। और कुछ देखने के लिए था भी नहीं। तभी मनु के अंदर रविंदर के स्वर फूट पड़े “मेरी प्यारी मनु। अंदर चलो। यहाँ ज्यादा देर खड़ी रही तो तुम्हें सर्दी हो जाएगी। अपनी बहन की तरह तुम्हें भी तो सर्दी जल्दी पकड़ती है ना।”
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