मेरी कहानी 95
दोनों बेटीआं धीरे धीरे बड़ी होने लगीं। कुलवंत भी अब धैनोवाली को भूलने लगी क्योंकि सारा धियान तो बच्चों में हर दम रहता था। बच्चों को क्लीनिक ले के जाना , उनकी खुराक का खियाल रखना और हर रोज़ दिन में कई दफा नई नई फ्राकें पहनाना, बस इस में ही सारा दिन बीत जाता था। जब मैं काम से आता, कुछ ना कुछ दोनों बेटिओं के लिए खाने को ले के आता, कभी चॉकलेट कभी क्रिप्स (इंडिया में चिप्स) ले के आता। दोनों बेटीआं मेरी ओर भागी आतीं। जितना पियार मुझे बेटिओं से मिला मैं लिख नहीं सकता। दोनों के सर के बाल घुंगराले होते थे , कुलवंत बनाती ही इस तरह थी कि यह बहुत सुन्दर लगती थी। बहादर और लड्डा जब आते तो वोह भी बहुत पियार देते। लड्डा तो इतना पियार करता था कि अपने दोस्तों से भी बताता रहता कि बच्चे देखने हों तो गुरमेल के देखो। उस ने एक छोटा सा लाल रंग का कीबोर्ड भी बच्चों को ले के दिया था जो अब भी एक फोटो में है ,जिस से लड्डे की याद ताज़ा हो जाती है।
कुछ समय बाद बहादर की अर्धांगिनी कमल भी बेटी किरण के साथ आ गई। जब किरण को हम ने पहली दफा देखा तो हम हंसने लगे कि क्या यह बहादर की बेटी ही थी क्योंकि वोह इतनी दुबली पतली थी कि लगता ही नहीं था की वोह बहादर की बेटी थी। लेकिन कुछ ही महीनों में उस का शरीर भर गिया था और अब लगने लगा कि वोह वाकई बहादर की बेटी ही थी। उस के बाल कटवा दिए गए थे और अब वोह मेम लगने लगी थी। देख कर मुझे बचपन का बहादर का चेहरा दिखाई देने लगता क्योंकि बचपन में बहादर भी शरीर का बहुत सलिम होता था। कुछ हफ़्तों बाद हम मिलते ही रहते थे और कभी कभी इकठे ही सिनिमा देखने जाते। इधर कुलवंत की बुआ फुफड़ जी कभी कभी हमारे घर आ जाते। बुआ के तीन बच्चे थे दो लड़के जिन्दी और निंदी और एक बेटी सुरिंदर। हमारे बच्चों से कुछ बड़े थे लेकिन रीटा पिंकी को बहुत पियार देते थे। जब भी कभी हम बुआ फुफड़ को मिलने जाने की बात करते ,बच्चे उछलने कूदने लगते।
एक और घर था यहां हम बहुत जाया करते थे ,यह घर बर्मिंघम में था। इस का भी छोटा सा इतहास लिखना चाहूंगा। कुछ पहले मैं लिख चुक्का हूँ कि जब मैं धैनोवाली पहली दफा कुलवंत के घर गिया था तो अचानक कुलवंत के मामा जी भोजोवाल वाले आ गए थे। इस के कुछ देर बाद ही हमारी शादी हो गई थी। शादी के दो हफ्ते बाद ही कुलवंत के किसी रिश्तेदार की शादी थी और बरात को फगवाडे. जाना था। शादी रामगढ़या कालज के नज़दीक सतनाम पुरे रेलवे फाटक के नज़दीक ही थी । उस दिन कुलवंत बहुत खूबसूरत ड्रैस और शादी की चुड़ीआं पहने हुए बहुत ही चहकती हुई नज़र आ रही थी। तभी एक लड़की हमारी ओर आ गई जो बहुत गोरी ,भोली भाली और कुछ कुछ शर्माकुल थी। उस ने आते ही हमें सत सिरी अकाल बोला। कुलवंत मुझे कहने लगी ,” यह मेरे उसी मामा जी की बेटी है जो उस दिन अचानक आ गए थे जब तुम पहली दफा मुझे मिलने हमारे घर आये थे। इस की शादी भी इंगलैंड के ही एक लड़के से हो रही है और यह भी इंगलैंड आ जायेगी और हम इस से मिलने जाया करेंगे”. इस लड़की का नाम बलबीर था और कुछ महीनों बाद ही बलबीर भी इंगलैंड आ गई थी।
मुझे याद नहीं कितनी देर बाद बलबीर इंगलैंड आई लेकिन जब ही हमें पता चला कि बलबीर बर्मिंघम आ गई है तो हम उसे मिलने के लिए उन के घर जा पहुंचे। बलबीर के पति गुरमुख सिंह बहुत ही हंसमुख हैं। जब की बात मैं कर रहा हूँ गुरमुख और उन के माता पिता बहन भाई सब एक ही घर में run corn road moseley में रहते थे। गुरमुख के पिता जी इतने पड़े लिखे तो नहीं थे लेकिन कविता बहुत अच्छी लिखते थे। जब वोह अपनी कविता मुझे सुनाते तो मैं बहुत वाह वाह देता था। शायद इतनी वाह वाह उन्हें और किसी से नहीं मिलती थी ,इस लिए जब भी हम जाते वे मुझे अपनी नई कविता सुनाने लगते। गुरमुख और बलबीर कभी हम को मिलने आ जाते और रात हमारे घर रहते और कभी हम उन के घर चले जाते। हमारे घर का एक कमरा उन के लिए रिज़र्व ही होता था। कुछ देर बाद बलबीर के भी बेटी हुई थी जिस को जब हम देखने गए थे तो एक फोटो बलबीर की बिटिया अजिंदर को अपने हाथों में लिए मैंने खिचवाई थी जो अब भी कहीं घर में होगी। बाद में तो बलबीर की दो और बहनों की शादी भी यहां ही हुई थी और हम भी उन की शादीओं में शामल हुए थे। अब तो सभी बहने हमारी तरह पोते पोतिओं वाले हो गए है लेकिन अब हम ख़ास समारोहों पर ही मिल पाते हैं। जितनी कठिन ज़िंदगी उस वक्त थी ,यह सब का मिलना जुलना ही हम को सुखी करता था। बलबीर का तो कुलवंत के साथ इतना लगाव है कि हर काम में मशवरा इन से ही लेती है।
वैसे तो और लोगों से भी हमारा बहुत प्रेम था लेकिन बहादर ,भुआ फुफड़ और बलबीर गुरमुख ,इन तीन घरों से तो इतना मिलते थे कि हमारा कोई शनिवार और रविवार खाली नहीं होता था। और गियानी जी की फैमिली के साथ तो ऐसे था जैसे सभी एक घर के ही सदस्य हों। मेरी काम की शिफ्टें ही ऐसी होती थी कि गियानी जी के साथ बहुत बातें होती रहती थीं ,कभी सिआसत कभी धर्म कभी इंगलैंड के उस वकत के हालातों पर। गियानी जी हमेशा यही कहते रहते थे कि इंगलैंड के हालत अच्छे नहीं रहेंगे और एक दिन हम को यहां से जाना पड़ेगा। जब हम सभी मेरे ही घर में रहा करते थे तो गियानी जी से अपने काम करवाने के लिए बहुत लोग आते जाते रहते थे। कुलवंत और जसवंत की पत्नी बलबीरो सारा दिन किचन में चाय ही बनाती रहती थी। जब मैं और गियानी जी अकेले होते तो मैं बहुत सवाल पूछता ,ख़ास कर धर्म के बारे में।
एक दफा तो गियानी जी मुझ से कुछ खफा भी हो गए जब बात रब है या नहीं है पर आ गई। मैं उन को कह बैठा ,” गियानी जी अगर रब है तो रब को किस ने बनाया ?”. गियानी जी उस दिन मुझ से कुछ खफा हो गए और कहने लगे ,” गुरमेल! अभी तू इतना ही जान ले कि तेरे माता पिता के मेल से एक छोटे से बिंदू से तू कैसे इतना बड़ा आदमी बन गिया , फिर तू धीरे धीरे समझ जाएगा “. मैंने गियानी जी को सौरी बोला लेकिन गियानी जी ऐसी बातें करना पसंद भी करते थे। उन का कहना था कि अपनी ही बात को किसी पर ठूंसते रहना भी ठीक नहीं है. भगवान को मानना ना मानना हर किसी की अपनी सोच है और सोचने से ही गियान बढ़ता है। जो इंसान हमेशा अपने धर्म को ही सही सिद्ध करने की कोशिश में रहता है वोह गलत है। एक आदमी ने ग्रन्थ ज़्यादा पड़े हुए है और वोह उन ग्रंथों का हवाला दे कर दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, वोह सही नहीं हो सकता। यही तो धर्मों की लड़ाई है ,वोह कहते। कोई हिन्दू सिख मस्जिद में जाने से डरता है ,कोई मुसलमान मंदिर गुरदुआरे की तरफ देखना नहीं चाहता और यह सभी लोग भगवान पर विशवास रखते हैं। जसवंत को इन बातों से कोई मतलब नहीं होता था ,वोह कई दफा कह देता ,” ओए छडो भी हुंण इहनां गल्लां नू “. हम हंस पड़ते। जसवंत को तो एक बात में ही दिलचस्पी होती थी कि कितने वजे पब्ब को जाना था।
दिन को तो हम गियानी जी के घर ही रहते थे लेकिन रात को तो हम अकेले ही होते थे या जब कोई हमारा मेहमान आ जाए तो हम अपने घर में ही बिज़ी रहते थे। बहादर की पत्नी कमल के आने से कुछ समय पहले एक दफा बहादर और उस का भाई हरमिंदर लड्डा हमें मिलने आये। उस वक्त यह आम रिवाज़ ही होता था कि पुरष पब्ब को चले जाते थे और औरतें उन के लिए खाना तैयार करती थी। पब्ब से आ कर पुरष बातें करते रहते और औरतें उन के लिए टेबल पर खाने की पलेटें ले कर आती। हम गिआरा वजे पब्ब से आये और टेबल पर बैठ कर बातें करने लगे। कुलवंत खाना लाने लगी। हम ने मज़े से खाना खाया। कुछ देर बाद बहादर और लड्डा जाने के लिए तयार हो गए। उस रात ठंड बहुत थी और फ्रौस्ट पड़ रही थी। बहादर कहने लगा ,” गुरमेल तुम यहीं बैठो ,बाहर ठंड बहुत है ,हम दरवाज़ा बंद कर देंगे “. वोह उठ कर चले गए और हम भी सोने के लिए बैड रूम में चले गए।
अभी सोने की तयारी कर ही रहे थे कि दरवाज़े पर बैल हुई। हैरान हुआ मैं नीचे आया और दरवाज़ा खोला तो देखा बहादर और लड्डा बाहर खड़े थे। लड्डा बोला ,” ओ यार हमारी तो कार की चाबी जो घर की और चाबिओं के गुच्छे में थी, सड़क के गटर में गिर गई है ,किया करें “. मैं कोट पहन कर बाहर आया तो देखा कि गटर का ढक्क्न तो बहुत भारी लोहे का था और घरों का गंद रोड लैम्प की रौशनी में चमकता दिखाई दे रहा था। मैं भीतर गिया और एक लोहे की बड़ी सी बार ले आया। इस लोहे की बार को हम ने ढक्क्न में घुसाया और जोर से उठाया। ढक्क्न कुछ ऊपर उठा और बहादर और लड्डे ने जोर से उठाया और एक तरफ रख दिया। अब सवाल पैदा होता था कि चाबिओं का गुच्छा कैसे ढूंढें। लड्डा जमीन पर लेट गिया और अपना हाथ गटर में डाला ,लेकिन गटर बहुत गहरा था और नीचे कीचड़ में हाथ पहुँचता नहीं था। सब ने कोशिश की लेकिन कुछ बन नहीं पाया। फिर हम ने एक स्कीम बनाई कि हम लड्डे की टाँगे पकड़ कर रखें और लड्डा दूर नीचे तक हाथ डाले। हम ने ऐसे ही किया। जब लड्डा आधा नीचे गिया तो उस का हाथ गटर की तह तक चले गिया और वोह अपना हाथ गटर में हर तरफ चलाने लगा लेकिन चाबी का कोई पता नहीं चलता था क्योंकि कीचड़ ही इतना था कि चाबी हाथ लगती ही नहीं थी। लड्डा थक गिया और बाहर आने को कहा। हम ने टांगें खींची और लड्डा बाहर आ गिया। उस रात ठंड भी इतनी थी कि हम फ्रीज़ हो गए थे। फिर हम ने सोचा कि क्यों ना हम पुलिस स्टेशन जाएँ ,शायद वोह फायर ब्रिगेड वालों को बुला कर हमारी मदद कर दें। मैं और बहादर पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़े।
अभी कुछ दूर ही गए थे कि लड्डे ने जोर से आवाज़ दी ,” ओए मुड़ आओ , मिल गई “. हमारे जाने के बाद लड्डा फिर लेट कर गटर में हाथ मारने लगा था। जब हम आये तो लड्डे ने बताया कि जब उस ने एक कौर्नर में हाथ चलाया तो चाबिओं का गुच्छा उस के हाथ में आ गिया । हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि सुबह को सभी ने काम पर जाना था। हम भीतर आ गए। पहले लड्डे ने अपनी कलाई खूब साबुन से धोई। कुलवंत ने हीटर लगा दिया था और चाय बनाने लगी थी। सर्दी के कारण हमारा बुरा हाल हो गिया था और लड्डे की तो कलाई लाल रंग की हो गई थी। दो दो कप हम ने चाय के पिए लेकिन हम बहुत हँसे और रात के एक वजे तक बातें करते रहे। लड्डा हंसने लगा कि अब कभी भी इस गटर के नज़दीक गाड़ी खड़ी नहीं करेंगे। इस के बाद जब भी हम को मिलने आते गाड़ी दूर खड़ी करते और आते ही कहते, “भई हम ने गाड़ी उधर ही खड़ी कर दी है “. लड्डा तो अब इस दुनीआं में है नहीं लेकिन कभी कभी जब मैं और बहादर वोह बात याद करते हैं तो लड्डे की याद आ जाती है।
लड्डे की बहुत खासीहतें होती थीं। वोह बहुत तगड़ा जवान होता था। कभी कोई गोरा काला अकड़ने लगे तो उन के साथ लोहा लेने के लिए झट से तैय्यार हो जाता था। लेकिन दिल का ठंडा भी इतना था कि छोटी मोटी बात हो तो उस को कभी गुस्सा नहीं आता था और मुस्कराता रहता था और लोगों की मदद भी कर देता था , कुछ देर बाद लड्डा वैस्ब्रॉमविच की बस गैरेज में बस ड्राइवर लग गिया था। फिर वोह अचानक हमेशा के लिए इंडिया चले गिया था और क्योंकि उन की घर की जमींन बहुत थी ,इस लिए वोह खेती करने लग गिया था। हम कभी सोच ही नहीं सकते थे कि लड्डा कभी इंडिया वापस जाएगा क्योंकि लड्डा इतना समार्टली ड्रैस्ड होता था कि लगता ही नहीं था कि वोह कभी वापस जाएगा, खेती करना तो बात ही दूर की थी। लड्डा और बहादर तो भाई थे और उनका पियार तो था ही लेकिन जब 1973 में मैं पिताजी की मृत्यु के समय गाँव गिया था तो हमारा वोह मिलन तो मेरी यादों के एक गहने की तरह है जिन के बारे में वक्त आने पर जरूर लिखूंगा क्योंकि यही मेरी लड्डे को सही श्रद्धांजलि होगी। इतनी युवा अवस्था में उसका हम से जुदा होना हमारे लिए एक दुखांत है।
चलता . . ….. . . …
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी क़िस्त पढ़ी जिससे आपकी उन दिनों की इंग्लैंड की जिंदगी के बारे में पता चलता है। यह अच्छी बात थी की इंग्लॅण्ड में आपके मित्र वा कई रिस्तेदार थे जिन्हे मिलकर आपको विदेश के विपरीत माहौल में रहने पर भी भारत जैसा माहौल कुछ कुछ मिल जाता था। ज्ञानी जी भी धर्म कर्म की बातो से आपको काफी प्रभावित करते रहे होंगे। आपने ज्ञानी जी से ईश्वर को किसने बनाया, जो प्रश्न पूछा था वह प्रश्न बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानंद जी ने भी इस प्रश्न को जिज्ञासु की तरफ से अपने आप लिखकर स्वयं उत्तर दिया है। आज की क़िस्त से यह भी पता चला की आपके पिताजी की मृत्यु होने पर आप १९७३ में भारत आये थे। यह जानने की जिज्ञासा मुझे कई बार हुई थी। आज इसका उत्तर अनायास ही मिल गया। क़िस्त बहुत अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।
मनमोहन भाई , आप के विचार अछे लगे . १९७३ की बात समय आने पर मैं जरुर लिखूंगा किओंकि यह एक ऐसी घटना है जो कोई भी शख्स अपनी जिंदगी में भूल नहीं सकता . रब है या नहीं की बात बहुत होती ही रहती थी ,तब भी जब गियानी जी हम से दूर चले गए थे . हमारी सोसाएटी ही ऐसी थी कि बहसें होती ही रहती थीं जिस में धार्मिक विशवास वाले ,राधा सुआमी कट्टरपंथी और नास्तक सभी होते थे .बहसें बहुत दफा गर्म हो जाती थीं लेकिन गुस्सा कोई नहीं करता था .यह बहसें अक्सर प्ब्बों में होती थीं और प्ब्ब भरे हुए होते थे ,इस लिए लोग बहुत हो जाते थे .पब्ब की बात से भारत में लोग बुरी जगह समझते होंगे लेकिन यहाँ इस के अर्थ कुछ और हैं और यहाँ औरतें और बच्चे भी चले जाते हैं ,बच्चे अपनी गेमें खेलते रहते हैं ,कोई जो बीअर बगैरा नहीं पीता वोह औरेंज जूस या कोक ले लेता है .यह जगह ऐसी है कि वक्त का पता ही नहीं चलता लेकिन आज कल यह पब्ब बहुत बंद हो गए हैं और हो रहे हैं किओंकि सब ड्रिंक महंगे हो रहे हैं . गियानी जी के साथ रह कर बहुत कुछ सीखा था और मेरे अक्सर वोह ही काम आता था .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। पूरी क़िस्त पढ़ी जिससे आपकी उन दिनों की इंग्लैंड की जिंदगी के बारे में पता चलता है। यह अच्छी बात थी की इंग्लॅण्ड में आपके मित्र वा कई रिस्तेदार थे जिन्हे मिलकर आपको विदेश के विपरीत माहौल में रहने पर भी भारत जैसा माहौल कुछ कुछ मिल जाता था। ज्ञानी जी भी धर्म कर्म की बातो से आपको काफी प्रभावित करते रहे होंगे। आपने ज्ञानी जी से ईश्वर को किसने बनाया, जो प्रश्न पूछा था वह प्रश्न बहुत अच्छा और महत्वपूर्ण है। स्वामी दयानंद जी ने भी इस प्रश्न को जिज्ञासु की तरफ से अपने आप लिखकर स्वयं उत्तर दिया है। आज की क़िस्त से यह भी पता चला की आपके पिताजी की मृत्यु होने पर आप १९७३ में भारत आये थे। यह जानने की जिज्ञासा मुझे कई बार हुई थी। आज इसका उत्तर अनायास ही मिल गया। क़िस्त बहुत अच्छी लगी। हार्दिक धन्यवाद। सादर।