मानव ही मानव के प्रति ••••
जब किसी,
मानव के अन्दर,
उँचे पद की लोलुपता आ जाती है।
भूल जाते हैं लोग,
अपने अस्तित्व को।
उतर आते हैं नीचे,
करने लगते है,
निकृष्ट काम।
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अन्तरनिहित अन्तरद्वंद्व,
छिपाये हुए ।
बाहर लगाते हैं।
मिठी-मिठी बातो का पालिस,
बन जाते हैं,
चापलूस।
उनके लिए,
बन जाते हैं देवता।
जो चलते हैं उनके बनाये हुए,
गलत राह पर।
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अपने को छिपाते हुए,
दूसरों कोउस रास्ता पर,
आगे बढा देते हैं।
उसी के आड़ तले ,
अपने ईर्ष्याद्वेष को सिद्ध करते हैं।
लगाते हैं अपना दाव,
दूसरों को परेशान करने के वास्ते,
कईयों को किया तंग।
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आते गये,
सहते गये,
और अन्त में,
चले भी गये।
छोड़ कर सब कुछ यही पर,
मानव ही मानव को।
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फिर भी नहीं मिलती है,
उस मानव को सफलता।
विवशता के परे,
लगाता है आरोप।
पुनः एक मानव को ,
करने के लिए परेशान।
करते रहता है अनवरत कोशिश।
अपने को दिखाने के लिए,
सोचते रहता है,
मानव।
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सर्वोपरि
हम कब हो जाय।
यही मन में भावना लिए,
अपने को करता ,बदनाम।
यहाँ वहाँ बातों के जरिये,
निकालता है अपना सारा काम।
@रमेश कुमार सिंह /३१-०८-२०१५
सही तो है !
शुक्रिया आदरणीय!!