जीवात्मा का पूर्वजन्म, मुत्यु, पुनर्जन्म व परजन्म
ओ३म्
आज का विज्ञान ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरुप से पूर्णतया व अधिकांशतः अपरिचित है। विज्ञान केवल भौतिक पदार्थों का अध्ययन ही करता है व उनके विषय में यथार्थ जानकारी उपलब्ध कराता है। विज्ञान का भौतिक पदार्थों का अध्ययन व उसके आधार पर उपलब्ध कराया गया ज्ञान व सुविधायें सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व है ही नहीं। ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। हम मनुष्य हैं। हमारा शरीर जड़ वा भौतिक पदार्थों पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से मिलकर निर्मित है। यह भी कह सकते हैं कि यह भौतिक तत्वों के परमाणुओं से निर्मित है। परन्तु यह स्वीकार नहीं कर सकते कि मनुष्य व प्राणियों के शरीर में भौतिक तत्वों से पृथक एक स्वतन्त्र, अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न, नित्य जीवात्मा है ही नहीं। मनुष्य व प्राणी शरीरों की स्वामी जीवात्मा ही होती है। यदि जीवात्मा न हो तो मनुष्य व प्राणी शरीर का कोई महत्व ही नहीं है। जीवात्मा के निकल जाने पर जिस प्रकार से शरीर जड़वत् होकर निष्क्रिय हो जाता है, इसी से आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान किया जा सकता है। जिसके शरीर में रहने से शरीर श्वांस प्रश्वांस लेता व छोड़ता है, शरीर के सभी अंगों से कार्य करता है व जो शरीर के सभी अंगों से काम लेता है, वह एक स्वतन्त्र व शरीर से बिलकुल पृथक सत्ता चेतन जीवात्मा है। यह चेतन तत्व जीवात्मा एकदेशी व अतिसूक्ष्म है। अतिसूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देती। ज्ञान व कर्म इसका स्वरुप है। जीवात्मा का प्राणी शरीर के उत्पत्ति स्थान माता के गर्भ में प्रवेश व शरीर का निर्माण होकर संसार में आने को मनुष्य व प्राणी का जन्म कहते हैं। प्राणी का शरीर समय के साथ उचित पोषण मिलने पर वृद्धि को प्राप्त होता है। शैशवावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था से होता हुआ यह आत्मा मृत्यु को प्राप्त होता है। इसका जन्म होने का कारण पूर्वजन्म के अवशिष्ट कर्म, जिसे प्रारब्ध कहते हैं, के सुख व दुःख रूपी फलों को भोगना होता है और मनुष्य जीवन में इसको नये कर्मों को करने की सुविधा भी ईश्वर ने दी हुई है जिससे चाहे तो यह अपने अच्छे भविष्य का निर्माण करे या फिर निकृष्ट व पाप कर्मों को करके दुःखरूपी पशु आदि योनियों में जन्मों को प्राप्त करे। मनुष्य जन्म जहां प्रारब्ध के भोग के लिये है वहीं यह परा और अपरा विद्याओं के ज्ञान प्राप्ति के लिए भी होता है। आजकल अपरा विद्या का ज्ञान तो स्कूल व कालेजों में मिल जाता है परन्तु परा विद्या जिसे आध्यात्मिक विद्या भी कहते हैं, इसका सत्य व यथार्थ ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। यह ज्ञान केवल वेद, उपनिषद, दर्शन सहित वेदानुकूल सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है। अन्य सभी ग्रन्थ भ्रान्तियों से युक्त ग्रन्थ हैं जिससे जीवात्मा का पूर्ण विकास व उन्नति नहीं होती। जीवात्मा के पूर्ण विकास व उन्नति का उदाहरण यदि लेना है तो हमारे सामने मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, महर्षि दयानन्द, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी दर्शनानन्द आदि महापुरुष हैं जिन्होंने अपनी आत्मा का यथासम्भव विकास किया था।
महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् 1882 में पुनर्जन्म पर दो प्रवचन दिये थे। उन दुर्लभ व महत्वपूर्ण प्रवचनों का सार उपलब्ध है जिसे हम प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रस्तुत प्रवचन का सार उनके रविवार 26 फरवरी, 1882 को ‘पुनर्जन्म और सृष्टि-विद्या’ विषयक प्रवचन से संबंधित है जो उन्होंने ‘फ्रामजी कावशजी इंस्टीट्यूट’ में सायं साढ़े चार बजे से साढ़े सात बजे के मध्य दिया था। इन्होंने प्रवचन में कहा था कि ‘जीवों का पुनर्जन्म अर्थात् पुनः-पुनः जन्म, भिन्न-भिन्न योनियों में अपने किये पाप-पुण्यों के अनुसार होता है। पाप का भाग अधिक होने से उन उन कर्मों के अनुसार पशु-योनि और वनस्पति-योनि में जीव देह धारण करता है। पाप-पुण्य बराबर होवें तो मनुष्य देह को प्राप्त होता है तथा अधिक पुण्य होने से उत्तम मनुष्य का जन्म होता है। मनुष्य देह में उत्तम ज्ञान गुणों को प्राप्त कर पुरुषार्थ करके उत्तम क्रियमाण कर्म करे तो संचित प्रारब्ध सुधर कर अन्त में मोक्ष सुख को प्राप्त होता है। (यह मोक्ष अर्थात् जन्म व मरण से अवकाश ही जीवात्मा का मनुष्य जन्म धारण करने का उद्देश्य व लक्ष्य है। यदि वर्तमान मनुष्य योनि में हमारी जीवात्मा को मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकी या मोक्ष मार्ग की ओर उन्नति नहीं हुई तो यह समझना चाहिये कि हमारा यह जीवन व्यर्थ गया।) यह महर्षि दयानन्द के प्रवचन का प्रथम भाग था। प्रवचन के उत्तर भाग में उन्होंने कहा कि सृष्टि-विद्या अर्थात् सृष्टि का निर्माण, पालन और उसका नाश कालान्तर में किस रीति से होता है तथा ऐसा करने का क्या प्रयोजन है? इत्यादि ईश्वर के महद् गुणों का उनके प्रवचन में विवेचन था।’
रविवार 5 मार्च, 1882 को ‘पुनर्जन्म और सृष्टि-विद्या’ विषय पर उन्होंने दूसरा व्याख्यान दिया। उनके व्याख्यान के उपलब्ध लिखित सार में कहा गया है कि ‘पुनर्जन्म मानने के प्रबल प्रमाण देकर स्वामी दयानन्द जी ने श्रोताओं को इसके सम्बन्ध में विश्वस्त=निःशंक किया तथा पुर्नजन्म न मानने में कितने दोष आते हैं, उन्हें सिद्ध करके बताया और सृष्टि रचना में विशेष जानने योग्य सब बातों का अच्छी तरह स्पष्टीकरण किया।’
महर्षि दयानन्द द्वारा 17 जुलाई, 1875 को पूना में भी जन्म विषय पर प्रवचन किया था। यह प्रवचन अपने विस्तृत रूप में उपलब्ध है। इस प्रवचन में उन्होंने जीवात्मा के पृथक अस्तित्व व इसके जन्म, पूर्वजन्म व परजन्म को अनेकानेक युक्ति व तर्कों से सिद्ध किया है। इस प्रवचन में उन्होंने यह भी कहा है कि विद्वानों को परम्परागत ज्ञान को आंखे बन्द कर स्वीकार करना उचित नहीं है अपितु तर्क-वितर्क करके विषय का निर्णय करना, यह विद्वानों का मुख्य कर्तव्य बताया है। पाठकों से निवेदन है कि वह उनके इस प्रवचन को पुस्तक ‘पूना-प्रवचन’ में पढ़ने का कष्ट करें। हमें यह पंक्तियां लिखते हुए एक संस्मरण याद आ गया। हमारे साथ एक मित्र श्री नरेशपाल मीणा काम करते थे। उन्हें अपने पूर्वजन्म की घटना याद थी। इस जन्म में वह राजस्थान के करौली जिले में जन्में थे। बचपन में ही उन्हें पूर्व जन्म की घटना स्मरण हो आयी थी और उन्होंने इसके बारे में अपनी माता व दादी को बताया था। पिता आदि द्वारा पूछताछ करने पर इसकी पुष्टि हो गई थी। उन्होंने हमें यह भी बताया कि घरवालों ने उस घटना को विस्मृत कराने के अनेक तांत्रिक उपाय व पौराणिक पूजा पाठ कराये परन्तु इस पर भी उन्हें वह घटना स्मरण थी। घर वालों ने उन्हें पूर्व जन्म के स्थान में जाने से रोक रखा था जो कि उनके जन्म स्थान से कुछ दूरी पर था। उन्होंने बताया था कि पूर्वजन्म में वह व उनके भाई एक पंचायत की बैठक में गये थे। वहां झगड़ा हो गया था। वहां ग्रामीणों में आपस में बल्लम चलें। एक बल्लम उनके बायें कंधे के कुछ नीचे काफी गहरा लग जाने से मृत्यु हुई थी। बैठक में पूर्वजन्म का छोटा भाई भी उनके साथ था। उन्होंने बताया था कि उनका मन उस परिवार में जाने को होता है और भविष्य में एक बार वहां अवश्य जायेंगे। अनेक वर्ष पूर्व वह हमारे साथ नौकरी छोड़ कर किसी अन्य विभाग में उच्च पद पर चले गये थे। इस जन्म में भी उनके उसी स्थान पर एक निशान बना हुआ था जिसे उन्होंने हमें दिखाया था। उनकी सभी बातों को सुनकर हमें इस घटना की सत्यता में विश्वास हो गया था। यह घटना उनको इस कारण याद रह पाई कि मृत्यु का कारण एक दुर्घटना थी जिसमें उनको बहुत अधिक मर्मान्तक पीड़ा हुई थी। वर्तमान जीवन में भी हमारे जो कटु अनुभव होते हैं वही देर तक याद रहते हैं, साधारण बातें लम्बे काल बाद याद नहीं रहा करती।
लेख को विराम देने से पूर्व यह कहना है कि वेदों के आधार पर मनुष्य का जन्म हमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए मिला है। युक्ति व तर्क से भी यह बात सत्य सिद्ध होती है। आजकल जीवात्मा का मनुष्य जन्म मिलने पर उसका सारा समय भौतिक विद्याओं को अर्जित करने व उससे सारा जीवन धन कमाने व सुख सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह कर उनका भोग करने में लग जाता है। परजन्म की उन्नति के लिए पुण्य व श्रेष्ठ कर्मों को करने का अवसर बहुत ही कम मनुष्यों को मिलता है। सांसारिक कामों को ही करने से मनुष्य कर्म-फल व उसके बंधनों में फंसता है। यह वैदिक विधान है। इससे मोक्ष का मार्ग अवरुद्ध होता है। संतुलित जीवन व्यतीत करते हुए मनुष्यों को परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। उसे ज्ञान व त्याग पूर्वक संतुलित मात्रा में परिवार, सन्तान, घर, संबंधियों व भौतिक पदार्थों का सुख भोगते हुए धर्म-कर्म अर्थात् वेदानुसार ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना तथा यज्ञादि कर्म को भी करते हुए परजन्म का सुधार व मोक्ष प्राप्ति में अग्रसर होना चाहिये। जीवन विषयक प्रायः सभी प्रश्नों के समाधान के लिए सरलतम ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन उपयोगी है। मृत्यु से बचने के लिए मनुष्य को वेदों की शरण में आकर ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना व यज्ञादि कार्य जिसमें परोपकार, वृद्धों की सेवा, देशभक्ति आदि भी सम्मिलित है, करने आवश्यक हैं। इन्हीं से मृत्यु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
-मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा लेकिन एक बात की मुझे कभी समझ नहीं आई कि हम अक्सर सएंस्दानों पर बहुत नुक्ताचीनी करते हैं लेकिन सएंस्दान धर्मों के बारे में कोई ख़ास दखलंदाजी करते सुने नहीं है .ज़िआदा से ज़िआदा वोह यह कह देते हैं कि हो सकता है कोई भगवान् ना हो .इस पर भी कुछ सएंस्दान हैं जो यह कहते हैं कि कोई शक्ति तो है जो इस संसार को चला रही है .इस से ज़िआदा वोह धर्मों में दखलंदाजी नहीं करते .मज़े की बात यह है कि हम उन्हीं सएंस्दानों की इजाद हुई चीजें हर दम इस्तेमाल करते हैं . सएंस्दान हर दम कोई ना कोई नई इजाद में मगन रहते हैं जिस से सारे संसार को फैदा पहुँचता है .अब यह कम्पिऊतर ही ले लें .मैं यहाँ बैठा सारे संसार में कमिऊनिकेत कर सकता हूँ . जिस ने यह बनाया उस से सारे संसार का भला हो रहा है लेकिन उस ने किसी धर्म पर ऊँगली नहीं उठाई .हम उन की लाखों इन्वेंट की हुई चीज़ें रोजाना इस्तेमाल करते हैं ,फिर भी हम पहले सानेंस्दान पर ही ऊँगली उठातें हैं ,मुझे यह कभी समझ नहीं आई .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपके विचारों को पढ़ा व भावनाओं को भी समझा। मैंने वैज्ञानिको की आलोचना नहीं की है। मैंने यह कहा है कि विज्ञानं का क्षेत्र भौतिक जगत है, आध्यात्मिक जगत नहीं है। अतः वैज्ञानिक अध्यात्म के बारे में नहीं जानते। जो व्यक्ति जिस की संगती करता है या अध्ययन करता है, उसे उसी का ज्ञान होता है। विज्ञानं जब अध्यात्म का अध्ययन ही नहीं करता तो उसे इसके बारे में जानकारी कहाँ से मिलेगी। यही हाल हमारे पौराणिक भाइयों व पुरोहितो का है। जब वह वेदादि ग्रंथों को पढ़ेंगे नहीं तो उनको इनकी बातो का ज्ञान कहाँ से होगा। यही सिद्धांत सब पर लागू होता है। विज्ञानं सब सत्य है और हम सभी उससे लाभान्वित हो रहे हैं। उनका उपकार हम पर हैं। लेकिन इतना तो उन्हें भी करना ही चाहिए किं विज्ञानं के साथ साथ अपनी आत्मा को भी जाने। वह आत्मा को जानने का भी प्रयत्न नहीं करते। सभी मनुष्यों को, चाहे वह ज्ञानी है या नहीं, वैज्ञानिक है तब भी और नहीं तब भी, ईश्वर व अपनी आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए। शायद मैं अपनी बात आप को समझा नहीं पा रहा हूँ। एक बार फिर निवेदन करता हूँ कि मैं विज्ञानं का विद्यार्थी रहा हूँ। यही कार्य करके मैंने अपनी आजीविका चलाई है। मैं इसका आदर करता हूँ। इसके साथ मैं यह भी कहूँगा जय अध्यात्म, यह ईश्वर और जय विज्ञानं एवं जय वैज्ञानिक महाशय। सादर।