एक कश्मीरी बेटी की व्यथा
आज 19 जनवरी है ….आज के दिन सन् 1990 में काश्मीर की घाटी से हिन्दुओ को निकाल दिया गया था …
शायद किसी बेटी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा
इक ख़त मेरे कल हाथ लगा
बस सुप्त मेरा जज़्बात जगा
लिखा था खत इक बेटी ने
रखा था छुपा के पेटी मे
ख़त मे पीड़ा का वर्णन था
इक इक घटना का चित्रण था
जो घाटी मे थे बबाल हुए
असपे गुड़िया ने सवाल किये
उसने खोये थे मात पिता
वो पूछ रही थी अपनी खता
ऐसा क्या मैंने गुनाह किया
मुझको क्यो सबने तबाह किया
जिनको मैं चाचा कहती थी
जिनकी गोदी मे रहती थी
बच्चो संग खेली खाई थी
उनको मैं कहती भाई थी
कोई था कासिम व रहमान
उनके संग खेली मैं नादान
उनकी आंखो मे वहश दिखी
सब लूटने की ही हवस जगी
फिर आई वो मनहूस निशा
हर हिन्दू का जब खून रिसा
फिर शोर शराबा होने लगा
और खून खराबा होने लगा
हर मस्जिद से थी आवाज उठी
लाखो स्त्री की लाज लुटी
लेकिन मैं तो थी नन्ही कली
इदरिस चाचा के गोद पली
क्यो सुनी नहीं मेरी चित्कार
कासिम ने किया जब बलात्कार
वो हर क्षण मुझ पे था भारी
आई रहमान की भी बारी
फिर मेरी किस्मत फूट गयी
अंतिम आसा भी टूट गयी
हर रिस्ता फिर निकला झूठा
जब इदरिस ने भी आ लूटा
भाई को गोदा भालो से
मायी को पकड़ा बालो से
फिर फेंक दिया उसे जीनो से
छलनी कर दिया संगीनों से
बाबा को दी गहरी पीड़ा
टाँगो से जब उनको चीरा
पहले आंखो को फोड़ दिया
फिर उनका बाजू तोड़ दिया
फिर गोली से उन्हे ढेर किया
मैंने अपना मुह फेर लिया
हर तरफ लाज लुटती देखी
बस इक आवाज उठती देखी
लूटो मारो गोली दागो
इस घाटी से हिन्दू भागो
भाई ने की थी हमसे दगा
फिर लाशों का वहा ढेर लगा
उसके ही नीचे दब गयी मैं
ऐसी हु अभागन बच गयी मैं
न तन पे मेरे वस्त्र दिखा
अपने खूँ से ये पत्र लिखा
जब भी किसी के ये हाथ लगे
सीने पर मेरी बात लगे
न कोई कहना भाई है
ये सब तो निरे कसाई है
पढ़ते पढ़ते मैं रोता रहा
सब होश हवास मैं खोता रहा
और चेतना मेरी खोने लगी
असहनीय वेदना होने लगी
मैं ज्यो ज्यो ख़त को पढ़ता गया
घबराने लगा था मेरा जिया
अपने पे काबू खोने लगा
मैं फूट फूट के रोने लगा
— मनोज”मोजू”
मनोज जी ,आप ने बहुत कुछ लिख दिया ,बहुत दुखद घटना थी वोह लेकिन यह कौम तो हज़ारों सालों से ऐसा करती आई है .