कहानी

खोखली बातें

कोच नंबर बी-1 के इंडिकेटर के आस-पास ज्यादा लोग नहीं खड़े थे याने मुझे डिब्बे में चढ़ने में दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा। माँ बेकार चिंता कर रही थी। गाड़ी भले ही दो मिनट रुकती हो मगर भीड़ भी उतनी नहीं होती। याने सी एस टी न जाकर दादर से पकड़ने में कोई हानि नहीं है। ट्रेन धड़धड़ाती हुई प्लेटफार्म पर आई और इत्मीनान से बैठे लोग तो लोग, मक्खियां तक अपनी-अपनी जगह से इधर-उधर हो गईं।

मैंने अपनी बर्थ के आसपास के लोगों पर नज़र घुमाई। सभी पारिवारिक महाशय लगे। याने सुकून से सो सकूंगा। और ट्रेन में करना क्या है? बस वन पॉइंट एजेंडा – सोना, सोना और सोना है। है भी ऊपर वाली बर्थ, तो किसी को उठाने-बैठाने की टेंशन-वेंशन से छुट्टी। मैंने सोचा थोड़ा ट्रेन चल-वल ले फिर ऊपर अपनी जगह पकड़ लूँगा। तब तक यहीं बैठता हूँ, नीचे ही। दस ही मिनट में खिड़की वाले भाई साहब ने अपने सवालों की बौछार से मुझे घायल कर दिया।

“आप कहाँ तक जा रहे हैं।”

“जी… बस फलां फलां नगर”

“अच्छा। वहां तो हमारे बड़े जीजा रहते हैं। स्टेशन के पास ही उनका घर है। गांधी मैदान की तरफ निकलेंगे न, तो उधर ही बाईं तरफ हनुमान जी का चबूतरा है। उसी से सटकर उनका मकान है। आप ने ज़रूर देखा होगा। गांधी मैदान वाले हनुमान जी के चबूतरे को तो। सबने देखा है।”

पहले तो मैं उनके पूर्ण विराम लेने की प्रतीक्षा करता रहा ताकि उन्हें बता सकूँ कि मैंने नहीं देखा। मगर जब उन्होंने पूर्ण विराम लेने की योजना त्याग दी तो  मुझे उन्हें अल्प विराम पर ही टोककर बोलना पड़ा।

“जी नहीं। मैंने नहीं देखा है।”

“अरे। क्या कह रहे हैं। वो हनु हलवाई की दूकान नहीं देखी। बड़ी फेमस है। अगर उसके यहां का हलवा नहीं खाया तो फिर तो आपने कुछ नहीं खाया।”

“नहीं, मैंने नहीँ खाया।”

जनाब की आँखें आश्चर्य से फटी जा रही थीं।

“नहीं खाई। फिर तो आपको ज़रूर खानी चाहिए। एक बार चखकर तो देखिए। बाकी सब भूल जाएंगे।”

मुझे लगा कि इस हनु हलुवाई-शलुवाई के ब्रांड अम्बेसडर को सच बता ही दूं। मगर जो खुद ही प्रश्न पत्र का पर्चा हो वो आपसे पता कर के ही छोड़ेगा सो उसने पूछ ही लिया “रहते कहाँ हैं आप, वहाँ।”

“जी, मैं वहाँ रहता नहीं हूँ। किसी काम से जाना पड़ रहा है।”

“ओहो। तो पहले बताना था न। मैं फालतुए वहां का मैप पढ़े जा रहा था।”

“आपने पूछा ही नहीं।”

इतने में गाड़ी थाने स्टेशन पहुंची। खाली-खाली से डिब्बे में लोग ऐसे भरे जैसे खाली जगहों में पानी।

मैं मौका देखकर ऊपर चढ़ गया।

थाने स्टेशन से एक आदमी चढ़ा। आदमी क्या चढ़ा उन जनाब को पूरा का पूरा शिकार ही मिल गया जी और मिलते ही उन्होंने अपने शिकार को धर दबोचा।

उन जनाब ने पहले तो उस आदमी की सामान-वामान जगह-जगह अटकाने में मदद की। सहानुभूति पाकर वह व्यक्ति भी पिघलने लगा।

जब सब सेट-वेट हो गया तो उन जनाब ने प्रश्नावली का अपना पिटारा उस व्यक्ति पर दे मारा। वो बेचारे कहाँ सह पाते। आखिर थे तो बाल-बच्चेदार आदमी, तुरंत सब अहचान-पहचान बता डाला।

पता चला कि पत्नी और दो बच्चे पीछे छोड़कर वे ट्रांस्फर पर चल दिए हैं और बच्चों का इम्तहान खत्म होने पर अरिवार-परिवार भी लाएंगें। बेचारे मैनेजर साहब थे, बैंक में। हाँ, बेचारे ही थे क्योंकि मैनेजर थे और वह भी यहाँ-वहाँ नहीं सीधे सरकारी बैंक के; जिनके आँखों के नीचे गड्ढ़े पड़ गए थे, काले-काले। नहीं-नहीं मैंने उन्हें झुककर नहीं देखा; मैं तो लेटा ही हुआ था। यह सब तो यूपीएससी के उन प्रश्नपत्रक का किया-धरा है; उन्होंने ही सब कुछ यों उगलवा लिया।

“आपके आँख के नीचे तो बड़े काले-काले गड्ढ़े हैं। इनका कुछ करते क्यूँ नहीं।”

“क्या करें? कभी-कभी रातभर ब्रांच में बैठना पड़ जाता है। अक्सर सोने को ठीक से मिलता नहीं। कोई न कोई मीटिंग लगी रहती है। कुछ न कुछ डेटा तैयार करना रहता ही है।”

बस-बस; अब इतना माल-मत्ता काफी था उन जनाब के लिए इतने पर तो वह रातभर भाषण दे सकते थे।

“अरे नहीं-नहीं ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। इंसान को अपनी सेहत का पूरा ख़्याल रखना चाहिए। टाइम से सोना और टाइम से उठना चाहिए।”

यह बात सुनकर मैं चौंक पड़ा और अपनी घड़ी देखी। पौने-बारह। अपने आप को मुस्कुराने से नहीं रोक पाया और उनकी बातें सुनने से भी नहीं।

“मैं एकदम टाइम से सोता हूँ और टाइम से उठता हूँ। कभी नागा नहीं करता। मुझे देखिए कितना फिट हूँ।”

मुझे यकायक उसक थुलथुल करता हुआ लीनेन के कुर्ते से बाहर ढुलकता शरीर याद आ गया।

“आपको भी अपने आपको चुस्त-फुर्त रखना चाहिए। आख़िर हम इतना कमाते क्यूँ हैं? अगर अपनी सेहत का भी ख़्याल नहीं रख सकते तो।”

उस मैनेजर की चुप्पी बता रही थी कि वह इस समय अपने मैनेजर होने पर हीन भावना महसूस कर रहा था। मि. रायचंद को इस वक्त मैनेजर की दशा देख वही सुख प्राप्त हो रहा था जो किसी अजगर को अपने शिकार की हड़्डियां तोड़ने में आता है। एक वार और।

“आपके तो बाल भी उड़ गए से लगते हैं।”

“उड़ गए से नहीं साहब, उड़ ही गए हैं। इस नौकरी ने तो मेरे बाल ही खा लिए हैं।”

मैंने नीचे झुककर देखा कि ऐसा क्या है उस रायचंद में जो यह मैनेजर उसे साहब कह रहा है। यह मैंने पहले क्यों नहीं नोटिस किया, शायद अपने सामान को और खुद को भी सेट करने के चक्कर में। वह आदमी तो बड़े बढ़ियां कपड़े पहने हुए है और कोई बड़ा अफसर नज़र आ रहा है।

“यह सब असमय खाने, अपच का नतीजा है। समय से नहीं खाते होंगे इसलिए समय से पचता नहीं होगा और पित्त बनता होगा। पित्त ठहरा दो हजार बीमारियों की जड़। उसमें बालों का गिरना तो हईए है।”

“ठीक कह रहे हैं। ऐसा ही होगा।”

“ऐसा ही होगा नहीं…ऐसा ही है। मानो न मानो इसका इलाज पंडु वाले बाबा के चूर्ण से ही होगा।”

यह सुनकर तो मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाया। कुछ लोगों ने मुड़कर भी मुझे देखा। मगर सबको लगा मैं मोबाइल में कोई जोक पढकर हंस रहा हूँ।

मगर जनाब पर कोई असर नहीं, उन्होंने उस चूर्ण के प्रताप से मैनेजर साहब को अवगत कराया और बताया कि किस प्रकार जाने कितने ही प्राणियों ने इस चूर्ण के सेवन से अपने बड़े-बड़े दुख दूर किए हैं। एक किस्सा उनके गांव का था तो एक दिल्ली शहर के किसी व्यापारी का। एक बिहार के किसी नेता के उद्धार की कहानी थी तो एक उनके दूर के फूफाजी की।

ऐसे प्रभावोत्पादक चूर्ण की महिमा सुन आस-पास के कई लोगों ने चूर्ण मंगाने का पता नोट किया ताकि उन्हें भी उस दिव्य चूर्ण की प्राप्ति हो सके। यह सब उत्पात देखकर अब मुझे हंसी नहीं आ रही थी बल्कि खीझ उठ रही था। खीझ इसलिए नहीं उठ रही थी कि लोग राह चलते उस आदमी की बातों में क्यूँ आ रहे हैं; भला मुझे लोगों की दिलचस्पी से क्या दिलचस्पी; मुझे तो इस बात पर क्रोध आ रहा था कि रात के दो बजने को हैं और किसी का सोने-ओने का और न किसी को सोने देने का कोई प्रोग्राम नज़र आ रहा है।

मैं कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। मगर मेरे रेस्क्यू ऑपरेशन या यों कहें खुद के रेस्क्यू ऑपरेशन में एक मिलिट्री के जवान ने साइड वाली बर्थ से कड़ककर आवाज़ दी।

“ओ भाई साहब! रात बोत होगी है। ज़रा सो लैन दो।”

मैंने मन ही मन मेरी नींद के उस रक्षक को सलाम ठोंका और नींद की आगोश में चला गया।

सुबह जब मैं उस आगोश से बाहर आया तो सबसे पहले झुककर यही देखा कि रायचंद जी अभी-अभी अपनी कथा बांच रहे हैं क्या? मगर नहीं अभी तो उनकी गुब्बारे जैसी तोंद से हवा निकल रही है, भर रही है, निकल रही है, भर रही है।

ऊपर से नीचे झांकते हुए मेरी नज़र मिलिट्री वाले भाई साहब पर फिर उनकी खिड़की से बाहर कूदी। देखा तो ट्रेन किसी प्लेटफार्म पर खड़ी थी। फटाफट नीचे उतरा और चप्पल डालकर दरवाजे के बाहर उतर गया।

दूर तक नज़र दौडाई तो एक चायवाला दिख ही गया। मगर जब तक वो मेरे पास आएगा तब तक तो ट्रेन चल ही पड़ेगी। फिर भी आशा-प्रत्याशा में गोते लगाते हुए मैंने हवा में ज़ोर से हाथ हिलाया। चायवाले ने देख लिया. यूँ तो चायवाला छोकरा था वो। वैसे भी सुबह का समय था और बहुत कम ग्राहक थे। सो वो दौड़ता हुआ मुझ तक आ ही पहुंचा।

“जल्दी एक चाय दे।”

“घबराओ मत साब! ट्रेन अभी नहीं छूटेगी।”

“क्यूँ?”

“आगे लाइन पर कुछ झोल है।”

“ओह।”

छोकरा चाय देकर चला गया। बड़े दिनों बाद मैंने कुल्हड़ की चाय की चुस्कियाँ लीं। मुंह? क्या कहा? मैंने मुँह नहीं धोया? अरे भई! शेर भी कभी मुँह धोते हैं। वैसे तो कोई जानवर मुंह नहीं धोता। और फिर आदमी भी तो सामाजिक जानवर है। अब भले ही कुछ लोग उसे सामाजिक “प्राणी” का तगमा देते हैं।

चाय की आख़िरी चुस्की लेकर जब चैन आया तो वापस अपनी सीट की ओर गया। देखा तो मैनेजर साहब बीच वाली बर्थ पर अपने आप को ठूँसे बैठे थे और नीचे वाली बर्थ पर सोये रायचंद महाराज के उठने की प्रतीक्षा में थे ताकि बर्थ नीची की जा सके और बैठने की जगह बन सके।

मैंने जहाँ से चप्पल पहनी थी वहीं खोल दी। जाने किसकी थी। और फिर अपने बर्थ पर जाकर लेट गया। ट्रेन की समस्या भी कुछ ही देर में दूर हो गई और ट्रेन चल पड़ी मगर जनाब उठे नहीं। देखते ही देखते सारी बोगी जाग गई और चहल-पहल होने लगी। मगर वो जनाब अभी भी सो ही रहे थे। धीरे-धीरे बोगी के अंदर नाश्तों का दौर चला।

वो अब भी नहीं उठे। कैसे उठते, बातों की भांग चढ़ाकर नींद की मिर्गी में थे, बिना जूता सुंघाए कैसे उठते।

तो लो! ये भी हो गया। सबसे ऊपर वाली बर्थ पर खेल रही दो साल की बच्ची का जूता गिरा, सीधे मुंह पर। जनाब हकबका कर उठ गए और उठते ही सबकी नज़र में आ गए। आते कैसे नहीं; सब लोग उनके उठने का इंतज़ार जो कर रहे थे, कि वे उठें और बर्थ पर बैठने के लिए जगह बने।

जगह बनी और सुबह-सुबह या यों कहें दिन चढ़े भक्तिभाव का माहौल बनाया और भगवद्गीता पर चर्चा-परिचर्चा की, उन जनाब ने। उन्होंने गीता के श्लोकों के माध्यम से लोगों को जीवन यापन की राहें दिखाईं।

“गीता के सात सौ पच्चीसवें श्लोक में कृष्ण जी ने तीन प्रकार के भोजन बताए हैं जो सात्विक, राजसी और राक्षसी…….”

मेरा माथा ठनका। “सात सौ तो सात सौ, सात सौ पच्चीसवें श्लोक को ईजाद कर लिया गया। फिर भी लोग चित्त लगाकर उसे किसी महात्मा की तरह सुन रहे थे और इसलिए वह सुना भी रहा था। सुना तो रहा था साथ में बोगी में आनेवाले हर फेरी वाले का उद्धार भी कर रहा था। वे फेरी वाले भी खुश। बोहनी तो सुबह ही कर चुके थे अब जाते-जाते भी, क्या सात्विक और क्या राजसी, सारा नाश्ता इसे सौंपकर जा रहे थे।

“मनुष्य को दूसरे मनुष्य की इज्जत करनी चाहिए। चाहे वह किसी भी तबके से हो।” कहते-कहते उसने चाय वाले को रोका।

अभी चाय की पहली ही चुस्की ली थी कि “थू-थू यह चाय है?” चायवाले को घूर कर देखा। “यह क्या लूट मचा रखी है? चाय बेच रहे हो इतना महंगा या गुड़ का पानी। तुम सब लुटेरे हो। सिरे से बेईमान। सरे आम आम आदमी को लूटते हो।”

चाय वाले का रोज ही ऐसे लोगों से पाला पड़ता था।

“साब! यही चाय है। पीनी है तो पीजिए वरना रहने दीजिए। कई लोग इसी चाय का इंतजार कर रहे हैं इससे पहले की यह ठंडी हो जाए। आपको गुड़ का पानी लगती है और यहाँ बोगी में घुसते ही सारी चाय खाली हो जाती है। गर्दन पर बंदूक रखकर तो चाय नहीं पिला रहा। पीनी है पियो वरना मत पियो।”

“अबे साले! बहुत चर्बी चढ़ी है। ला पैसे वापस कर।”

“साब! गाली नहीं देने का। बोला ना खराब लगती है तो चाय मत पियो।”

“ला साले पैसे वापस कर।”

बार-बार गाली सुनकर चायवाले की त्यौरियां चढ़ आईं। वह भी तैश में आ गया।

“जा नहीं देता। क्या उखाड़ना है, उखाड़ ले।”

रायचंद को यह नाफरमानी बर्दाश्त न हुई उसने तुरंत चायवाले की गर्दन पकड़ ली। इतने में आस-पास के और फेरी वाले इकठ्ठा हो गए, जिन्हें देखकर रायचंद के पसीने छूट गए और उन्होंने कॉलर छोड़ दिया।

“चल जा! मैं एक चायवाले के मुँह लग कर अपना दिन खराब नहीं करना चाहता।”

चाय वाला वैसे तो रायचंद का भुर्ता बना देना चाहता था लेकिन वह भी अपना समय नहीं खराब करना चाहता था इसलिए घूरते हुए चल दिया। मगर ये जनाब देर तक चायवाले के पीछे मुँह बनाते रह गए।

“बच्चा है मेरे आगे, इसलिए छोड़ दिया, वरना ऐसे-ऐसों को तो मैं मसल कर रख देता।”

“छोड़िए जाने दीजिए सर। ऐसे लोग बहुत आते हैं मेरे ब्रांच में। केवल काम खराब होता है इनसे और समय भी।”

“हां! तो मैं कह रहा था कि सभी मनुष्यों की इज़्ज़त करनी चाहिए और कभी किसी की शिकायत नहीं करनी चाहिए। बड़ी से बड़ी मुसीबत को भी सकारात्मक ढंग से देखना चाहिए।” इतने में ट्रेन झटके से ब्रेक लगाकर खड़ी हो गई, जबकि आस-पास कोई स्टेशन भी नहीं था।

मैनेजर साहब बोले –“उफ! इतनी गर्मी में फिर खड़ी हो गई। जाने कब खुलेगी।”

रायचंद जी तो किसी की चूँ से भी महाग्रंथ निकाल लेते हैं तो इतनी बड़ी घटना को बिना टिप्पणी-शिप्पणी के कैसे छोड़ देते।

“चारों तरफ तो यही हाल है। ज़माना बहुत खराब चल रहा है। सब पैसा खा रहे हैं। जहाँ लाइनें बढ़नी चाहिए वहाँ एक ही लाइन पर कई-कई ट्रेनों की पासिंग दे रहे हैं। रेलवे वालों को तो बस एक्स्ट्रा काम नहीं करना है। जो है जैसा है, उसी में काम चलाना है, चाहें सारी व्यवस्था चरमरा कर गिर काहे नहीं जाए। उससे भी बढ़कर तो देश के नेता हैं। सब पैसा खा जाते हैं। कुछ बचता ही नहीं तो रेल्वे लाइन का खाक बनेगी।“

शुरू में तो मुझे यह सब मनोरंजन लग रहा था। पर कल रात से सुनते-सुनते अब सब ऊबाऊ लगने लगा। अब मुझे चिढ़ होने लगी और मैंने सोचा अब इन खोखली बातों के किस्सों को खत्म किया जाए।

मैं नीचे उतर आया। जैसे विष ही विष की औषधि है वैसे ही प्रश्नों के इस पिटारे का जवाब उसके सवालों का जवाब देते जाना नहीं है बल्कि उसे ही प्रश्नों में जकड़ लेना है।

मैंने उतरते ही कहा “आप बहुत जानकार लगते हैं। लगता है बहुत कामयाबी देखें हैं। आखिर करते क्या हैं? ज़रूर जीवन में बहुत बड़े-बड़े काम किए होंगे तभी तो इतने अनुभवी लगते हैं।”

सबने कान खड़े कर लिए। मैनेजर साहब भी अपने गुरु के बारे में जानने को अधीर दिखे।

मगर रायचंद जी पहले तो सकपकाए फिर खूब मुस्कुराते हुए बोले- “सब भगवान की माया है। कहीं धूप तो कहीं छाया है। उनकी इतनी कृपा है जीवन में कि मुझे कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।”

मैनेजर साहब के तो छ्क्के छूट गए। उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि वो कल से एक निठल्ले आदमी के उपदेश सुन रहे थे जिसका अपना कोई अनुभव ही नहीं था। ऐसा आदमी उन्हें जीने के तरीके सीखा रहा था। तो उन्होंने अपनी तसल्ली खुद ही करनी चाही –   “ फिर भी! कुछ तो करते ही होंगे; आखिर?”

“अरे नहीं जी! मेरे जीजा जी कुछ करने ही नहीं देते। जीजी खाने-पीने का पूरा ध्यान रखती हैं। तो जीवन तो यूँ ही ऊपरवाले की दया से बरकत ही कर रहा है।”

मैंने पूछा-“ जीजा और जीजी के अलावा कौन-कौन है आपके सुखी परिवार में।”

“और कौन होगा? उनके दो बच्चे।”

“आपके?”

“दीदी के बच्चे भी तो अपने ही हैं।”

मैंने सोचा या यों कहूँ कि सबने सोचा कि भला बच्चे होते तो क्या उनकी परवरिश भी जीजी-जीजा करते, शायद इसीलिए न हों। खैर, मैंने अगला सवाल दाग दिया।

“वैसे आपकी शर्ट बड़ी जंच रही है। आपके कपड़े तो बड़े ब्रांडेड लग रहे हैं। आपके टेलर ने स्टीचिंग भी बहुत फाइन की है। कहाँ से ली है?”

“अरे यह तो जीजा जी के कपड़ों की दुकान में से छंटे हुए बेस्ट सूट पीस हैं। एकदम नए थान का आखिरी पीस, वो भी लेटेस्ट फैशन का। और रही बात टेलर की, वो तो दुकान का अपना ही है।”

अब तक तो सब इधर-उधर देखने लगे। किसी को फुरसत ही नहीं थी कि उनकी तरफ देखें, फिर सुनना तो दूर की बात है।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com