कबीरी कुत्ते सी
राम की कबीरी कुत्ते सी हूँ
जित खींचते हैं तित चली जाती हूँ
जितना लड़ती हूँ उतना टूटती हूँ
इसलिए अब लड़ नहीं पाती हूँ
अब जैसी हूँ वैसी ही हूँ
या जैसी बना दो, बन जाती हूँ
मन नहीं हूँ, अब हृदय भी नहीं हूँ
मिट्टी के लौंदे सी चाक पर पाती हूँ
टूटती नहीं, अब बिखरती नहीं हूँ
क्योंकि जित खींचते हैं चली जाती हूँ
हज़ारों वर्षों से खुद को मैं
इस जेवड़ी से बंधा पाती हूँ
न टूटती है, न सड़ती है
है ऐसी जेवड़ी, गले लगाती हूँ
तोड़ने की की जो कोशिश
खा लात कूँ-कूँ कर रह जाती हूँ
इसलिए टूटती नहीं, अब बिखरती नहीं हूँ
क्योंकि जित खींचते हैं चली जाती हूँ
घर के चक्कर लगाती हूँ
घर वालों को चूमती हूँ, चाटती हूँ
बाहर का कोई छुड़ाए जेवड़ी तो
मैं उसी पर भूँकती हूँ, काटती हूँ
लक्ष्मण रेखा सी खींची जेवड़ी
कभी पार नहीं करने दी जाती हूँ
राम की कबीरी कुत्ते सी हूँ
जित खींचते हैं तित चली जाती हूँ