लिफ्ट
मैं लिफ्ट हूँ। जैसे मकान की दीवारों के कान होते हैं वैसे ही मेरे भी कान हैं। मगर विडम्बना यह है कि मेरे केवल कान हैं, मुँह नहीं; इसीलिए जीवन से जुड़ी विविध बातें केवल सुन पाती हूँ और सुनकर अपने तक ही कैद कर के रह जाता हूँ। मुंह होता तो औरों को भी उन अलग-अलग एहसासों से परिचित कराती जो मुझे नित्य-प्रति होते रहते हैं। अब बोल नहीं सकती इसलिए यहाँ लिखकर बयां कर रही हूँ कि किस तरह आज के दिन भी विविध समूह के लोगों से रू-ब-रू हुई हूँ।
आज तो सुबह-सुबह ही एक अजनबी चेहरे ने मुझे चौंका दिया। इतनी सुबह जब लिफ्ट में मैं केवल सफाई कर्मचारियों की अपेक्षा कर सकती हूँ; यह नया आदमी कौन है? इसे मैंने पहले कभी नहीं देखा। बड़ा घबराया हुआ और अचंभित लग रहा है। बार-बार अपना गिरता हुआ फोल्डर संभालने की जुगत कर रहा है। हमारी पूरी बिल्डिंग में तो ए.सी. प्लांट लगा है। यह इतना पसीना-पसीना क्यों हो रहा है? कोई टेंडर खुलने वाला है क्या इसका? या फिर किसी बड़े साहब से मिलने आया होगा ट्रांस्फर या प्रमोशन की सिफारिश लेकर। मगर नहीं यह अपना कर्मचारी नहीं है वरना गले में संस्था का पट्टा ज़रूर होता। यह टेंडर वाला भी नहीं होगा। टेंडर वालों को तो हमेशा दोपहर बाद ही बुलाया जाता है।
मैं अचंभित हो उसे घूर-घूर कर देख रही थी और अटकलें लगा रही थी कि लिफ्ट रुकी और दया भोंसले जी भीतर घुसे। इन दया भोंसले जी को मैं पिछले सोलह वर्षों से देख रही हूँ। न तो इनके अंदर कोई परिवर्तन आया है, न इनके जीवन के ढर्रे में। सोलह साल पहले जैसे दिखते थे आज भी वैसे ही दिखते हैं; मैक मोहन की तरह। बाल-वाल रंगते हों तो पता नहीं; और आज भी गेट से अंदर प्रवेश करने वाले प्रथम व्यक्ति हमेशा वही होते हैं।
दया भोंसले जी के लिफ्ट में प्रवेश करते ही उस नवयुवक ने जाने क्यूँ चैन की साँस ली। क्या उसे अकेले डर लग रहा था कि मैं कहीं उसे खा न जाऊँ?
“सर! यह रिक्रूटमेंट सेक्शन चौदहवीं मंजिल पर ही है न!”
“हां! यंगमैन” कहते हुए दया बाबू अगले ही फ्लोर पर उतर गए।
अच्छा तो ये जनाब नए-नए भर्ती होने आए हैं जो चौदहवीं मंजिल पर उतर गए।
उसे चौदहवीं मंजिल पर छोड़कर मैं खाली ही वापस भूतल पर पहुँच गई। अगर मैं लिफ्ट की बजाय कोई ऑटोवाला होती तो सुबह-सुबह ऊपर की मंजिलों पर जाने से साफ़ इंकार कर देती क्योंकि वहाँ से लौटते समय मुझे कोई सवारी नहीं मिलती और टैक्सीवाले ऐसे रास्तों पर जाने से अक्सर मना कर देते हैं।
अब धीरे-धीरे कार्यालय जाग रहा है। लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। पहले सफाई कर्मचारी आए इनके साथ-साथ ही कुछ बड़े ही पाबंद व कर्मठ कर्मचारी लोग आए। सब लिफ्ट में साथ-साथ ही घुसे। ये कर्मचारी बड़े खड़ूस किस्म के होते हैं। ये न तो किसी से बात-चीत करते हैं, न हंसी-मज़ाक। इनकी निजी ज़िन्दगी भी शायद बड़ी ही नीरस होती होगी। मैं ये नहीं कहूँगी कि ये वक्त के बड़े पाबंद होते हैं क्योंकि मैंने अक्सर देखा है कि जब बड़े साहब लोग छुट्टी पर होते हैं तो ये काफी देर से आते हैं।
साथ ही मैंने यह भी देखा है कि ये अपनी घड़ियाँ बड़े साहब लोगों से एकदम मिलाकर चलते हैं; याने उनके आने के ठीक पहले आते हैं और उनके जाते ही निकल जाते हैं। यही नहीं उनके खाने के लिए निकलने के बाद ही ये भी निकलते हैं मगर बड़े साहब को वापस आने से ठीक पहले अपनी सीट पर विराजमान होते हैं; जैसे कि साहब लोगों की नज़र में इन्होंने कर्तव्यपरायणता की सीमा पार कर ली है और काम के चलते खाना ही नहीं खाया। कभी-कभी सोचता हूँ कि इन्हें अगर बड़े साहब लोग इनकी कुर्सी पर नहीं देखेंगे तो क्या होगा? क्या उनकी कुर्सी-मेज उठा ले जाएंगे। खैर; तो लिफ्ट में कोई गपशप नहीं करते, हर वक्त ऐसा मुंह बनाए रहते हैं जैसे इन्हें सांप सूंघा हुआ हो। यह इनकी संवेदनशीलता का परिचायक है। इसलिए इनके बारे में कहने के लिए भी कुछ नहीं है।
इनके जाने के बाद, जैसा कि मैंने बताया साहब लोग आते हैं इस लिफ्ट में। हमारा देश विविधताओं का देश है, माना। मगर जितनी विविधता मैंने बड़े साहब लोगों में देखी है; मेरा मतलब जितने विविध प्रकार के बड़े साहब लोग मैंने देखे हैं, उतनी विविधता तो देह में भी नहीं मिलेगी।
अब चौथे मंजिल वाले बड़े साहब को ही ले लो। हमेशा खिलखिलाते, मुस्कुराते और बात-बेबात पर जुमला कसते हुए मिलेगें। वहीं आठवी मंजिल वाले हमेशा नाक चढ़ाए रहते हैं। उनको तो मैंने यहां तक कहते हुए सुना है कि चौथी मंजिल वाले ने अपने लोगों को सिर पर चढ़ा रखा है। अगर मुझे चौथी मंजिल वाला विभाग मिले तो मैं एक-एक को ठीक कर दूँ। यह बात उन्होने बारहवीं मंजिल वले बड़े साहब से एक दिन लिफ्ट में कही थी। जिसके जवाब में बारहवीं मंजिल वाले बड़े साहब ने कहा था –“छोड़ो भी। पब्लिक रिलेशन तुम्हारे बस का नहीं है। उसी को करने दो।” जिसे सुनकर उनका मुंह बन गया था। बाद में कुछ दिनों के लिए उनका ट्रांस्फर 14वीं मंजिल पर भी हुआ था। लोगों ने त्राहि-त्राहि मचा दी। फिर उन्हें वापस आठवीं मंजिल पर लेखा-जोखा करने भेज दिया गया।
लिफ्ट में अब कुछ ऐसे लोग आए जिन्हें हम पुरानी पीढ़ी का कहेंगे। दरअसल यहाँ लगभग बीस साल तक कोई भर्ती ही नहीं हुई। इसलिए जो लोग मिलेंगे वे या तो आठ-दस साल में सेवा समाप्त करने वाले होंगे या फिर जिनकी सेवा को अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ हो। तो यह पुरानी पीढ़ी वाला समूह है जो अभी-अभी भीतर आया है। अब तक जो लिफ्ट में आए मितभाषी समूह के थे। मगर अब आगे जितने भी लोग रोज़-रोज़ इस समय आते हैं सब इतनी कचर-कचर करे हैं कि मुझे लिफ्ट होने से ज़्यादा मछली-बाज़ार होने का आभास होता है। अब इसी समूह की बातें सुन लीजिए। एकदम अनकट, बिना काट-छाँट के प्रस्तुत किए देती हूँ।
“यह आज-कल के बच्चे लोग को देखा।”
“क्या हुआ?”
“अरे अबी यहाँ आए जुमा-जुमा चार दिन भी नहीं हुआ। प्रमोशन-प्रमोशन, सैलरी-सैलरी चिल्ला रए।”
“सही बात है। हमें देखा था। चौदह-चौदह, पंद्रह-पंद्रह साल तक कोई प्रमोशन नहीं,प्रमोशन तो क्या उसकी हवा तक नहीं थी। फिर भी हम लोग काम करते थे। मजे में।”
“लेकिन वो दिनों की तो बात ही कुछ और थी। कंप्यूटर नहीं था। सब काम हाथ से होता था। फिर भी कोई तनाव नहीं था। सब मिल-जुलकर रहते थे।”
“हां! याद है ऑफिस के बाद चाय पीने के लिए इकठ्ठा होते थे। शंकर टी स्टाल पर।”
“बस-बस यार। अब तुम हरि जलेबी वाला की भी याद दिलाएगा।”
“हां भई! अब वो बात कहां। अब तो ऑफिस में ही आठ बज जाते हैं। उसके बाद भाग-भाग के घर जाते हैं कि सुबह वापस आ सकें।”
“मैं तो बस अपने दिन गिन रहा हूँ।”
“वी.पी. सिंह जी के दिन तो खत्म भी हो गए। आज उनकी रिटायरमेंट है।”
“कौन वी.पी सिंह?”
“अरे वीरेन्द्र प्रसाद सिंह।”
“अरे हां…हां…हां। हां भई! जब लोगों को रिटायर होते ललचाई निगाहों से देखता हूँ तो यही सोचता हूँ….बस कुछ साल और भली-भली निकल जाए।”
“क्या भली-भली यार! रोज़ कोई न कोई नया सॉफ्टवेयर आता रहता है और रोज़ काम करने का तरीका बदल जाता है। इससे अच्छा तो वो काग़ज़ वाला ज़माना था। सब चीज़ रजिस्टर और फाइलों में ही निपट जाती थी। अब तो फाइल भी रखो; सॉफ्ट कॉपी भी रखो। ड्राफ्ट की भी सॉफ्ट कॉपी; फाइनल की भी सॉफ्ट कॉपी रखो। फिर उनकी हार्ड कॉपी भी रखो। फिर उन फाइलों का भी रिकार्ड रखो कि किस फाइल में कौन सी कॉपी है। हद है यार! बस अब जल्दी से रिटायर हों और छुट्टी हो।”
“सुना है अब हार्ड कॉपी नहीं रखनी पड़ेगी। नया सिस्टम आ रहा है। उसमें सबका डिजीटल कॉपी ही रखना होगा।”
“ये लो एक और कॉपी और एक और सिस्टम। अब यह सिस्टम भी सीखना होगा।”
“चलो चलें। अब इसे भी सीखें।”
“पहले ट्रेनिंग वालों को कहते हैं कि ट्रेनिंग दें किसी बढ़ियां से गोआ या केरला के रिसार्ट में तब सीखेंगे और काम करेंगे।”
“हा….हा”
“हा…हा”
“हा…हा”
लो अभी सबको उनके फ्लोर पर पहुंचाया ही था कि नीचे वाले फ्लोर पर बटन को ज़ोर-ज़ोर से और बार-बार दबाया जाने लगा; जैसे ऐसा करने से मैं लिफ्ट के लोगों को बीच में ही छोड़कर सबसे पहले नीचे ही पहुंच जाऊँगा। हद हो गई।
पहुंच कर देखा तो नई और पुरानी पीढ़ी का एक मिश्रित समूह मेरी प्रतीक्षा में मरा जा रहा था। इसमें पिछली पीढ़ी के कुछ ऐसे लोग थे जो छूट गए थे और नई पीढ़ी के कुछ ऐसे लोग थे जो अपने साथियों के मुकाबले जल्दी पहुंच गए थे।
“आप सभी नए लोग बहुत ऊपर तक जाएंगें। बहुत टैलेंटेड लोग हैं आप लोग।”
“हां सर! हमारे टैलेंट को निचोड़-निचोड़ कर मैनेजमेंट ने निकाल लिया। मगर जब कोई सुविधा देने की बात आती है तो साफ़ मुकर जाते हैं। अब आप ही देखिए जब से हम आए हैं तब से तो कर्मचारियों को मिलने वाली हर सुविधा एक-एक कर खत्म कर दी गई। असटीरिटी मेजर की गाज हम पर ही गिरी है।”
“अरे आप लोगों को जो मिलता है वो ज़रा प्राइवेट सेक्टर में जा कर देखो कितनों को मिलता है। और तुम लोगों की उम्र में हम लोगों को तो इसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिलता था।”
“सर! अब आपकी पिछली पीढ़ी को भी उनकी उम्र में आपको जो मिलता है उसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिलता था और हमारे बाद की पीढ़ी को भी जो मिलेगा हमें उसका दसवां हिस्सा भी नहीं मिलता। यह तो कोई बात नहीं हुई। रही प्राइवेट सेक्टर की बात तो सर अगर प्राइवेट सेक्टर में ही जाना होता, तो हम शुरु में ही चले जाते। पढ़-पढ़कर, आँखें फोड़-फोड़कर, अच्छे से अच्छे नंबर लाकर, बड़ी से बड़ी प्रतियोगिता पासकर हम यहां थोड़े न आते। जब कहीं कुछ नहीं करते तो हम भी जाकर प्राइवेट में एड़ियां घिसते।”
“अभी कुछ साल में यह पूरी पोस्ट्स खाली हो जाएंगी। फिर आप लोगों का राज होगा। प्रमोशन पर प्रमोशन मिलेगा। हम लोगों ने तो चौदह-चौदह, पंद्रह-पंद्रह साल तक प्रमोशन का नाम भी नहीं सुना था।”
“सर! अब आपके ज़माने की और हमारे ज़माने की तुलना आप कैसे कर सकते हैं? और अगर करते ही हैं तो ज़रा पूरी तरह से कीजिए।”
“मतलब।”
“मतलब यह कि आपके ज़माने में आदमी दस पासकर के क्लर्क हो जाता था। आज एम.ए. पास करके चपरासी भी नहीं बन पाता। अभी-अभी आपने प्राइवेट सेक्टर की बात की। सर प्राइवेट सेक्टर में मशरूम की तरह लोगों का प्रमोशन होता है। हम लोगों ने इतनी मेहनत कर प्रतियोगिता पास की और पढ़ाई की तो क्या उखाड़ लिया। उन सबके सामने तो हम कुछ भी नहीं। आपके समय में ज़िन्दगी इतनी कठिन नहीं थी न जीने का स्तर इतना ऊँचा था। थोड़ी सी सैलरी में भी गुज़ारा हो जाता था। एक आदमी बड़े से बड़ा परिवार चला लेता था। यहां तो मियां-बीवी दोनों कमाकर एकलौते बच्चे को पालने की मशक्क्त करते हैं।”
“हां वो तो है। आज तो कितना भी तनख्वाह है तो कम ही है।”
“बिल्कुल सर! अब देखिए आपने कितने रुपयों में अपनी पढ़ाई पूरी की होगी। सोचकर देखिए। मेरे बच्चे के नर्सरी में एडमिशन के लिए केवल एडमिशन के लिए पचास हज़ार रूपए लग रहे हैं।”
“पचास हज़ार! अरे बाबा! इतना तो हम आठ भाई-बहन की पूरी पढाई में भी खर्चा नहीं हुआ होगा।”
“जी सर! अब उसके पचास हज़ार कहां से आएंगे। कपड़े, किताबें, खाने-पीने और बस-ऑटो की तो बात ही भूल जाइए। अगर सैलरी नहीं बढ़ेगी या प्रमोशन नहीं मिलेगा तो कैसे चलेगा बिना डाका डाले या बैंक लूटे? ?”
बहुत कुछ बोलना चाहते थे लोग मगर मेरी भी अपनी ही रफ़्तार है लोगों को हमेशा के लिए वो लिफ्ट में नहीं रख सकती। जो लिफ्ट में आएगा वो लिफ्ट से जाएगा ही। जो भर्ती होगा वो रिटायर होगा ही। जो जन्म लेगा वो मरेगा ही की तर्ज पर। सो ये लोग भी अपनी बात पूरी हो या अधूरी हो, बस अपनी-अपनी मंजिल पर उतर गए।
अब तो ग्राउंड फ्लोर का हा-हा ही-ही मुझे यहां तक सुनाई दे रहा था। नीचे पहुँची तो जैसा सोचा था युवाओं की पूरी एक खेप बेखबर सी अपने आप में मशगूल थी। यहां तक कि ग्राउंड फ्लोर का बटन भी दबाना भूल गए। वो तो एक बड़े साहब का ड्रायवर उनका सूटकेस पहुंचाकर वापस ग्राउंड फ्लोर पर जा रहा था तो उसे नीचे पहुंचाने में आई। खैर, इस समूह ने भीतर पहुंचते ही शोर-गुल मचा दिया।
“अबे अरुण! वो वाली फिल्म रीलीज हो रही है, चलेगा देखने।”
“नहीं बे। प्रेज़ेंटेशन तैयार करना है।”
“तो कर लेना। फिर चलेंगें। क्यूँ नंदिनी क्या कहती हो?”
“हां अरूण! प्रेजेंटेशन तो दो दिन में तैयार हो ही जाएगा। फिर वीक-एंड पर चलेगें।”
“दो दिन में तैयार तो हो जाएगा। मगर बॉस उसमें रह-रहकर चेंज करता रहता है। और मंडे को जब तक प्रेजेंटेशन दे नहीं देते तब तक सर से टेंशन नहीं जाएगी फिर फिल्म क्या खाक एन्जॉय करेगें।”
“अबे! बॉस से तू इतना डरता क्यूँ है। बोल दे नहीं बन रहा है। वो खुद ही बना ले।”
“अबे बात-बात पर पी एंड सी के नंबर काटने की धमकी देता है।”
“तो काटने दे नंबर। आख़िर कब तक नंबर से डर-डर कर काम करेगें। क्यूँ आशा?”
“हां अरूण! मैं तो टेंशन ले-लेकर बीमार पड़ गई। अब भी विटामिन डी और बी कॉम्लेक्स की कमी बता रहें हैं। इससे इतना तो समझ आया कि सेहत जरूरी है। नौकरी तो ले नहीं सकता; नंबर ही ले ले। कब तक काम का स्ट्रेस लें।”
“हां अरूण! आशा सही कह रही है। मैं भी यह सोचती हूँ कि काम तो खत्म होने से रहा हमारे स्ट्रेस लेने से काम जल्दी तो खत्म नहीं होगा। क्यूँ ओम।”
“हाँ! अरूण अभी बहुत लंबी पारी खेलनी है। चिल यार। अभी से बोल्ड हो जाओगे तो कैसे चलेगा? आई होप कि वो नया बंदा जो ज्वाइन करने वाला था वी.पी. सिंह शायद विनय प्रताप सिंह आज ही ज्वाइन करे तो तुम्हारा काम हल्का हो जाए।”
“छोड़ो यार तुम सब कितना स्ट्रेस दे रहो ये सब सुना सुनाकर। अब तुम सब मिलकर स्ट्रेस पर मेरे लिए प्रेजेंटेशन बनाओगे क्या।”
“हा….हा”
“हा….हा….हा”
अच्छा तो सुबह जो भर्ती विभाग ढूँढ रहा था वो वी.पी.सिंह था। अच्छा है एक गया तो एक आया। खैर! इन सबको इनके फ्लोर पर छोड़ मैं सुस्ताने लगी। सोता हुआ ऑफिस जाग गया और चहल-पहल शुरू हो गई थी। अब लोग एक टेबल से दूसरे टेबल और एक केबिन से दूसरे केबिन आ-जा रहे थे; लिफ्ट से नहीं। मगर थोड़ी देर बाद ग्राउंड फ्लोर से मेरा बुलावा आया और मैं ये आई…आई….आई।
नीचे आकर देखा तो मेरी तरफ पीठ करके ………बोर्ड पढ़ता हुआ एक आदमी दिखाई दिया। उसके पीछे के बाल उड़ गए थे और पक भी गए थे। लिफ्ट खुलने की आवाज़ ने जब उनका ध्यान भंग किया तो वे सचेत हुए। वो मुड़े तो मैंने देखा कि अरे! यह तो चिर-परिचित वी.पी.सिंह हैं। नहीं नहीं सुबह पहली बार आनेवाला लड़का नहीं। यह तो शाम को आखिरी बार जाने वाले सीनियर सीटिजन हैं।
लिफ्ट में घुसे तो मुस्कुरा रहे थे। फिर कुछ सोचकर उदास थे और लगा रो देगें। फिर थोड़ी देर में चेहरा तनावमुक्त और प्रसन्नचित्त लगा। मेरा भी मन किया कि बोल पडूँ –“क्यूँ भाया! आज चले जाओगे तो कभी इस लिफ्ट को भी याद करोगे क्या जिसने वर्षों तक तुम्हें तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाया।” मगर क्या करूँ मेरी तो ज़बान ही नहीं है वरना यह सब लिखकर आपको क्यूँ बताता। उनको उनके फ्लोर तक पहुंचाया मैंने, शायद अंतिम बार।
तो बस यही थी मेरी दिनचर्या। शाम…शाम में….अरे शाम का किस्सा आप सुनेगें तो पक जाएंगें क्योंकि शाम में यही सब उल्टे क्रम में होता है। जो सबसे आख़िर में आया है सबसे पहले जाएगा और वही सब बतियाएगा जो सुबह बतिया रहे थे। सोचिए वही बातें आपको दुबारा बताऊँ तो आप कितना पक जाएंगे। मगर मैं कभी नहीं पकती। साल-दर-साल यही सब सुनती हूँ। दिन-ब-दिन लोगों को आते-जाते देखती हूँ। जिसे आते देखती हूँ उसे जाते भी ज़रूर देखती हूँ। यहाँ मेरे सिवाय कोई नहीं ठहरता।
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शुक्रिया
शुक्रिया
अति रोचक.
रोचक कहानी!!
धन्यवाद