तवायफ
कल यूँही निकली थी राहों पर
सड़क के दूसरे छोर पर
एक मासूम खेल रहा था !
कुछ अपने पर इतरा रहा था ,
न रोक सकी खुद को
जा समीप , गोद में भरकर
चूम लिया उसकी मासूमियत को !
खिड़की से देख उसकी माँ निकल आई —
अपने नन्हे को खींच बोल उठी ,
उफ्फ्फ — क्या जमाना आ गया है
कोठों का बिकता जिस्म सड़कों पर आ गया है !
मन भर उठा उसकी दलीलों पर ,
आँखें झुका चली ही थी
सामने से उसका पति आ गया
रात की रानी बनाने वाला
दिन के उजालों में मुरझा गया !
ये देख मैं सोच बैठी —
मैं जिस्म का सौदा करती हूँ खुले आम
तू तो खुद का भी नहीं सरेआम !
इज़्ज़त के ठेकेदारों की भीड़ है उन बदनाम राहों पर —
समाज के पुरुषों की कहानी है हर मोड़ पर !!
बस यह दुनीआं है ,कौन इन्कलाब लाएगा ?