कहानी

दुपट्टा

कल कॉलेज फिर से खुल रहा है, पूरे दो महीने की छुट्टियों के बाद। रात के नौ बज रहे हैं और मैं अपना सफ़ेद रंग का सूट प्रेस कर रही हूं जो मुझे कल पहनकर जाना है। मुझे सफ़ेद रंग बहुत पसंद है। वैसे तो मेरे पास सफ़ेद रंग के बहुत सारे कपड़े हैं लेकिन ये मेरा पसंदीदा सूट है जिस पर बड़े-बड़े पीले रंग के फूल बने हुए हैं। मैंने इसे कल ही धोकर नील दिया था। कैसा सफ़ेद चमक रहा है। क्यों न ह़ो उजाला कि सफेदी जो है। इसका दुप्पट्टा मैंने नही धोया। कोई बात नहीं वैसे भी वह इतना गंदा नहीं है कि उसे बार-बार धोना पड़े।

सुबह अलार्म बजते ही मैं उठ गई। हॉलाकि मैं अक्सर उसे बंद कर सो जाया करती हूं पर आज कॉलेज में पहला दिन है ना! मैं नहा-धोकर अपना पसंदीदा सूट पहन घर से निकली। जब पश्चिम की ओर गली में मुडी तो लगा जैसे गुलाब के पौधों पर चमकती हुई सूरज की रोशनी सूरज से नही बल्कि मेरे सूट से उन पर पड़ रही है। अब मैं मेन रोड पर आ गई कि अचानक मैं ठिठक कर रूक गई। सामने नाई की दुकान में लगे शीशे पर मेरी नज़र पड़ी। ओह ! नह़ीं, ये नहीं हो सकता। मैंने अपने दुप्पट्टे को नील नहीं दिया। अब क्या करुँ? वापस गई तो लेट हो जाऊँगी। काफ़ी दुविधाजनक स्थिति में रहने के बाद मैंने निर्णय लिया कि कॉलेज चलते हैं जो होगा देखा जाएगा।

मैं अभी कॉलेज के अन्दर पहुंची ही थी कि मेरी नज़र कुछ शरारती लड़कों पर पड़ी। इनका काम रास्ते में खड़े होकर आने-जाने वालों पर चुटकी लेकर हॅंसना और छेड़ना है। मैं कई बार इन्हें ऐसा जवाब देकर चुप करा चुकी हूं कि वे दुबारा मुंह न खोलें। पर आज शायद उनकी बारी है। वे जरूर मुझ पर हॅंसेंगे। `हर कुत्ते के दिन आते हैं’, मैं इसी ख्याल में उनके आगे से गुज़ऱी पर कुछ नहीं हुआ। लेकिन अभी दो कदम आगे गई ही थी कि वे आपस में ज़ोर-ज़ोर से हॅंसने लगे। मैंने मुड़कर देखा कि कहीं मुझ पर तो नहीं हॅंस रहे हैं। पर वे इधर नहीं देख रहे हैं। लेकिन वो आखिरी दो तो मुझे ही देख रहे हैं। यानि वे मुझ पर ही हॅंस रहे हैं। हे भगवान मैं किस मुसीबत में फॅंस गई ? क्यों मैं नील देने में आलस कर गई?

कॉलेज ऑफिस के सामने आई तो प्रिया मिली। उसे अपने कपड़े, सैंडल़, पर्स आदि दिखाने का बहुत शौक है। आते ही बोली “मेरा सूट कैसा है? इन छुट्टियों में मुंबई गई थी, वहॉं से लाई हूं। यू वोंट बिलीव; मैं केवल फोर हन्ड्रेड में लाई हूं।” मैंने कहा “ये सूट तो तुझे ढ़ाई सौ में ही खड़े बाज़ार में मिल जाता।” “अरे नहीं, इसकी क्वालिटी तो देख़, ऐसा सूट तुझे पूरे शहर में नहीं मिलेगा”। मुझे लगा शायद वह मेरे सूट पर बिना मैंचिग के सफेद दुप्पट्टे को देख कह रही है। मैं वहॉं से बहाने बना कर निकली। हे भगवान! अगर मैं रास्ते से ही लौट जाती तो कितना अच्छा होता। अगर मैनें दुप्पट्टे में नील दे दिया होता तो प्रिया को अच्छी तरह से बता सकती थी कि उसका चार सौ का सूट लड़कियॉं ढ़ाई सौ में पहन कर घूम रहीं हैं। नीलिमा ने भी तो वही सूट खरीदा था; ढाई सौ में। खैऱ, अभी मेरा वक्त बहुत बुरा चल रहा है। कल देखूंगी उसे।

अंग्रेज़ी का लेक्चर है इस वक्त। चलो क्लास में चले। सर ने दो-चार सवाल पूछे। मैंने भी हाथ खड़ा किय़ा पर सर ने मुझे छोड़ सभी को मौका दिया। ऐसा क्यूं? सर हमेशा मेरी तारीफ करते थे कि मैं सलीके से रहती हूं। कहीं मेरे पीले से दुप्पट्टे और सफेद सूट को देख वे भी मेरे बारे में गलत धारणा तो नहीं बना रहे। ओह! भगवान!  ये क्या हो गया, ऐसे कैसे हो गया जो मैं दुप्पट्टे में नील देना भूल गई।

सबसे बेहतर तो यही होगा कि मैं चुपचाप लाइब्रेरी में बैठकर पढ़ती हूं। किसी को मुंह भी नहीं दिखाना पड़ेगा और दिन भी निकल जाएगा। मुसीबत की इस घड़ी में मैं बार-बार ईश्वर को याद करते हुए लाइब्रेरी पहुंची। सामने लाइब्रेरियन खड़ा हो कर मुस्कुरा रहा था। उसकी हॅंसी कुछ रहस्यमय लगी। कहीं वह मुझ पर तो नहीं हॅंस रहा। आख़िर एक दिन हम भी उस पर हॅंसे थे। उस दिन वह अपने पैंट की ज़िप बंद करना भूल गया था। उसे देख कुछ लोग खुसर-फुसर करने लगे। आखिर धीरे-धीरे लाइब्रेरी में पढ़ रहे सब लोगों को बात पता चली और सभी मुंह दबाकर हॅंसने लगे। गुस्से से उसने मुझे देखा और पूछा “किस बात पे इतना खिखिया रही हो?” यह प्रश्न सुन और उससे भी ज़्यादा उसका उत्तर सोच मैं अपनी हॅंसी रोक न पाई और ठहाका लगा कर हॅंस पड़ी। मेरे हॅंसने की देर थी कि सभी हॅंस पडे। लाइब्रेरियन को जब बात पता चली तो वह झेंप गया। आज तो मेरी शामत आई है।

अब तो तय कर लिया कि घर वापस जाऊँगी। लाइब्रेरी में कुछ देर बैठने के बाद बाहर निकली तो उषा मिली। उषा और मैंने मिलकर एक दिन एक लड़की का खूब मज़ाक उड़ाया था क्येंकि उसके कॉटन सूट का एक कोना कमर पर ही चिपक कर रह गया था और उसे यह मालूम नहीं था। और आज; उषा मुझे देखेगी तो क्या कहेगी। “ओह नहीं, क्या करूँ?” वह दूर से ही मुस्कुराती हुई आ रही थी। इससे पहले की वो कुछ बोले मैंने कहा “मैं ज़रा जल्दी में हूं। बाद में मिलते हैं।” मैं निकल गई और वह पुकारती रह गई। “अरे ज़रा सुन तो।”

दिन किसी तरह खत्म हुआ और मैं घर के लिए निकली। रास्ते में लाला जी की दुकान पड़ती है। वहॉं से गुजर ही  रही थी कि उन्होंने आवाज़ लगाकर बुला लिया “गुड़िया इधर तो सुनो।” मैं वहां गई तो उन्होंने नील का एक डब्बा थमाते हुए कहा – “पैसे बाद में दो तो चलेगा।”  मैं हैरान हो गई, ये तो हद हो गई। अपने आपको सॅंभालते हुए बस “ठीक है” कहा और झेंपते हुए घर चली आई।

घर पहुंचकर खाने पर बैठी तो सोचने लगी कि क्या सचमुच मैं इतनी बुरी दिखती हूं? इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए आइने के सामने खड़ी हुई। देखा तो दुपट्टे की सफेदी में और सूट की सफेदी में ज्यादा फर्क न था। फिर वो लड़के मुझ पर हॅंसे क्यूं? लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है कि वे मुझपर ही हॅंसे थे? प्रिया फिर मुझे अपना सूट बार-बार क्यों दिखा रही थी? उसकी तो आदत है, फिर मैं कैसे मान लूं कि वह मुझे चिढ़ा रही थी? लाइब्रेरियन का चेहरा तो हॅंसमुख है ही और उषा क्या कहना चाहती थी, मैंने सुना भी नहीं, ऐसे ही कुछ भी अनुमान लगा लिया। लेकिन लालाजी का मजाक तो झूठा नहीं हो सकता। उन्होंने तो सच में हद कर दी, अरे मुझे नील का पूरा डिब्बा थमा दिया। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? वे तो मजाकिया स्वभाव के भी नहीं हैं। फिर उनका इरादा क्या हो सकता है?

अभी आइने के सामने खड़ी होकर मैं यह सब सोच ही रही थी कि मॉं आई और बोली – “लाला को मैंने फोन कर नील मॅंगाया था। घर में नील खत्म हो गया है। तू नील लाई क्या ?”

 

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

2 thoughts on “दुपट्टा

  • हा हा , बहुत खूब ,जिंदगी में कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि छोटी सी बात को ले कर सारा दिन बीत जाता है और आखर में जब पता चलता है कि यह हमारा भ्रम ही था तो खुद पर हंसी आ जाती है .

    • नीतू सिंह

      जी..अक्सर ज्यादा सोचने से हो जाता है।

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