आखरों की प्रीत
अब न होगी कल
इस शहर में मेरी सहर
जाना हैं अब मुझे
निशा के गहन तिमिर में
बसाकर याद-ए-मोहब्बत तुम्हारी
लड़ना हैं सीमा समर में
मगर ए हमदम सुन
देख इस विरह वेला को
हो न जाना विकल तुम
ये थाम लो कागज़ जिसके
हरेक आखर में ………
बसी हैं मोहब्बत हमारी
जब छुएगी सबा हररोज
तुम्हारे सुर्ख गालों को
तब प्यारा सा एक चुंबन दे
पढ़ना इसे मगशूल हो
कसम से ऐ मनमीत तब
खिल उठेगा तुम्हारा चेहरा
और हो जाएगी तुमको भी
मेरे इन आखरों से प्रीत।।
— अनमोल