कविता

आखरों की प्रीत

अब न होगी कल
इस शहर में मेरी सहर
जाना हैं अब मुझे
निशा के गहन तिमिर में
बसाकर याद-ए-मोहब्बत तुम्हारी
लड़ना हैं सीमा समर में

मगर ए हमदम सुन
देख इस विरह वेला को
हो न जाना विकल तुम
ये थाम लो कागज़ जिसके
हरेक आखर में ………
बसी हैं मोहब्बत हमारी

जब छुएगी सबा हररोज
तुम्हारे सुर्ख गालों को
तब प्यारा सा एक चुंबन दे
पढ़ना इसे मगशूल हो
कसम से ऐ मनमीत तब
खिल उठेगा तुम्हारा चेहरा
और हो जाएगी  तुमको भी
मेरे इन आखरों से प्रीत।।

— अनमोल

अनमोल तिवारी 'कान्हा'

1. पूरा नाम : अनमोल तिवारी "कान्हा" 2. पता : अनमोल तिवारी "कान्हा" S/O भँवर लाल तिवारी पुराना राश्मी रोड पायक मौहल्ला वार्ड न•17 कपासन , जिला :- चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) पिन कोड :-312202 3. शौक :कविताएँ लिखना , रेडियो सुनना , पढाई करना 4. सम्प्रति : शिक्षक (रिलायबल एकेडमी स्कूल कपासन) 5. प्रकाशन : वंदेमातरम , शब्द प्रवाह एवं विभिन्न ऑनलाईन पत्रिकाओं में प्रकाशन । 6. सम्मान : अनहद विशिष्ट मान्यता सम्मान (अंबाला, हरियाणा)2015 शारदा साहित्य सम्मान 2012 7. मोबाइल नंबर:-09694231040 & 08955095189 8. ईमेल : [email protected] 9. लिंक : (1) Sahitysangam.blogspot.com (2) /anmol.tiwari.7505468 जीवन यात्रा:- मेरा जन्म 03/04/1991 को कपासन नगर में हुआ ।मैंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गृहनगर कपासन में ही पूर्ण की इसके बाद शिक्षण प्रशिक्षण के लिए मैंने दो वर्ष के लिए रावतभाटा श्रृद्धालय कॉलेज में दाख़िला लिया। मेरी अब तक की ज़िंदगी भारी तंगहाली में ही बीती । यहाँ तक की मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए हॉटल पर काम करना पड़ा । कभी - कभी ग़रीबी मेरा इस कदर इम्तिहान लेती थी की मुझे ना चाहते हुए भी अपनी पढ़ाई को विराम देना पड़ा । मुझे याद हैं आज भी , जब मेरे पिताजी कई बार सिर्फ़ एक वक्त का भोजन कर दिन भर भूखे रहते थे।ताकि मैं या मेरे भाई बहन भूखे ना रहे । मैं बेहद सौभाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसी तंगहाली मैं भी इतना स्नेह करने वाले पिता मिले । मेरे पिताजी नें हमेशा मुझे सकारात्मक सोच के साथ पढ़ते रहने की शिक्षा दी। पर क्या करे वो भी वक्त के हाथों मजबूर थे । मुझे आवश्यक पाठ्यसामग्री उपलब्ध करवाने में असमर्थ थे। मैं अपने दोस्तों की पुस्तकें माँग - माँग कर पढ़ता रहा । जैसे -जैसे वक्त बीतता गया मैंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाई करते हुए मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर में दाख़िला लिया । अब चुकि: मैं एक सामान्य वर्ग का छात्र हूँ तो ना ही मुझे कभी छात्रवृति या अन्य किसी माध्यम से मदद मिल पायी । और मेरी इन्हीं संघर्ष की भावनाओं ने मुझे बचपन से ही लिखने को प्रेरित किया। ऐसे मैं एक दिन सहज ही मेरी मुलाक़ात आदरणीय गुरूजी कवि श्री "वीरेंद्र सिंह जी वीर " से हुई । उनकों मेरे अंदर पता नहीं कुछ ऐसी प्रतिभा नज़र आई कि उन्होंने मुझे अपना सानिध्य दिया ।और यहीं से शुरू हुई मेरी असली साहित्यिक यात्रा । उन्होंने मुझे सदा लिखते रहने को प्रेरित किया । यहाँ तक की मेरी कलम आज जो कुछ भी लिखती हैं बस यूँ समझिए उनका ही आशीर्वाद हैं। नहीं तो शायद मेरी रूचियाँ आज भी इस ग़रीबी के अभिशाप में यूँ ही किसी अंधेरे कोने मैं दबी रह जाती ।