ईश्वर-वेद-दयानन्द भक्त तपस्वी व त्यागी आचार्य बलदेव जी महाराज (आज मृत्यु दिवस पर)
ओ३म्
—जिसकी कीर्ति है वह मरता नहीं सदैव जीवित रहता है—
वेद-वेदांग, व्याकरण के पण्डित, कर्मयोगी, तपस्वी, वयोवृद्ध विद्वान, आदर्श चरित्र के धनी, नैष्ठिक ब्रह्मचारी आचार्य बलदेव जी अब नहीं रहे। आज प्रातः 28 जनवरी, 2015 को लगभग 85 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। महात्मा आचार्य बलदेव जी ने अपने जीवन में विद्युत विभाग की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर युवावस्था में संस्कृत की आर्ष प्रणाली के अध्ययन को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया था और इसमें कृतकार्य तो हुए ही अपितु एक दीपक की भांति अपनी विद्या के प्रकाश से अनेक प्रमुख विद्वानों व संन्यासियों का जीवन निर्माण कर उन्हें वेदों के प्रकाश से आलोकित किया था। आर्यजगत के प्रसिद्ध गुरुकुल कालवां-हरियाणा की आपने स्थापना की थी जो आपका सच्चा स्मारक है। भारत ही नहीं अपितु विश्व की प्रमुख हस्ती योगाचार्य स्वामी रामदेव जी को आपके शिष्य होने का सौभाग्य व गौरव प्राप्त है। आदर्श जीवन व चरित्र के धनी आचार्य बलदेव जी का जीवन देश की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श है। जीवन की सार्थकता शरीर को स्वस्थ, निरोगी और दीर्घायु बनाने सहित विद्या के क्षेत्र में व्याकरण व वेद-वेदांग का अध्ययन कर व उसका प्रचार कर जीवन को सफल बनाने में है। इसी पथ पर आचार्य बलदेव जी चले थे और यही जीवन शैली मनुष्य जीवन की सर्वोत्तम उन्नति का आधार व साधन रही है व आज भी है।
सभी मानवीय गुणों से पूर्ण व आदर्श आचार्य बलदेव जी का जन्म हरियाणा राज्य के सोनीपत जिले के अन्तर्गत सरगथल गांव में लगभग 85 वर्ष पहले (सन् 1930 में) एक धार्मिक माता-पिता के यहां हुआ था। आपकी अल्पायु में माता जी का देहान्त हो जाने पर पिता ने दूसरा विवाह किया। आपकी दूसरी माता जी का भी आपके प्रति अत्यधिक प्रेम व स्नेह था। ग्रामीण वातावरण के अनुसार आपने बी.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद विद्युत विभाग में आपकी नौकरी लग गई। आपका कार्यालय झज्जर में था अतः जब भी आर्यसमाज के प्रसिद्ध गुरुकुल झज्जर में विद्युत सम्बन्धी कोई समस्या आती थी तो आप वहां प्रायः आया जाया करते थे। गुरुकुल में आर्यजगत के शिरोमणी विद्वान व संन्यासी स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी आचार्य हुआ करते थे। बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखकर बलदेव जी में भी इसके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। गुरुकुल में ब्रह्मचर्य सहित सत्यार्थप्रकाश आदि पुस्तकें लेकर आपने इनका अध्ययन किया। स्वामी ओमानन्द जी के प्रवचनों का भी चमत्कारी प्रभाव आप पर होता था। स्वामी ओमानन्द जी ने भी आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और अनेक गुरुकुलों की स्थापना की थी जिनमें गुरुकुल झज्जर सहित कन्या गुरुकुल नरेला भी सम्मिलित हैं। बलदेवजी कई बार रात्रि में भी गुरुकुल में ही निवास करते थे। गुरुकुलीय शिक्षा के प्रति आपका प्रेम इस सीमा तक बढ़ा कि आपने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और पूर्णकालिक ब्रह्मचारी वा विद्यार्थी बन गये। प्रचलित स्वभाव के अनुसार उनके परिवार को उनका नौकरी छोड़ना और घर न आना पसन्द नहीं था और वह उन्हें घर ले जाना चाहते थे। इन विघ्नो को देखते हुए आपने स्वामी ओमानन्द जी की प्रेरणा से महर्षि दयानन्द के भक्त श्री देवस्वामी जी के गुरुकुल सिरसागंज के लिए अध्ययनार्थ प्रस्थान किया और वहां संस्कृत व्याकरण के आचार्य पंण्डित शंकरदेव जी से अध्ययन किया। अध्ययन में कोई विघ्न उपस्थित न हो इसलिए आपने इस गुरुकुल में अध्ययन की जानकारी अपने परिवार को नहीं दी। इसका ज्ञान केवल स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी को ही था। गुरुकुल सिरसागंज में अध्ययन के दिनों में आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान, संन्यासी और नेता स्वामी इन्द्रवेश जी आपके साथी व मित्र हुआ करते थे। दोनों ने एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त की थी। आचार्य बलदेव और स्वामी इन्द्रवेश, इन दोनों ब्रह्मचारियों, ने माता-पिता की अनुमति मिलने की आशा न होने के कारण घर से भागकर गुरुकल में शिक्षा प्राप्त की थी।
महात्मा बलदेव जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। संस्कृत का सम्पूर्ण आर्ष व्याकरण आपको मृत्यु के समय तक कण्ठ था। संस्कृत व्याकरण के आप विलक्षण आचार्य थे। आर्यसमाज के क्षेत्र में गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ एक प्रसिद्ध गुरुकुल है जहां के ब्रह्मचारी विद्यार्थियों ने खेलकूद में राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अनेक पुरुस्कार प्राप्त कर देश और गुरुकुल को गौरवान्वित किया है। इस गुरुकुल के आचार्य स्वामी विवेकानन्द सरस्वती ने आचार्य बलदेव जी से अध्ययन किया है। जिन दिनों आप गुरुकुल झज्जर में स्वामी इन्द्रवेश जी आदि विद्वान आचार्यों से पढ़ते थे तो संस्कृत व्याकरण के अध्ययन से सन्तुष्टी न होने के कारण आपने गुरुकुल छोड़ने का निश्चय कर लिया था। आचार्य बलदेव जी को इस बात का पता लगने पर उन्होंने विवेकानन्द जी से बात की तो उन्होंने बताया कि वह अपने गुरुजनों द्वारा संस्कृत के अध्ययन से सन्तुष्ट नहीं हैं। इस पर महात्मा बलदेव जी ने कहा कि कल से मैं तुम्हें संस्कृत पढ़ाऊंगा। मैं चार बजे या इससे पहले सोकर उठ जाता हूं। यदि तुम मुझसे पहले उठ जाओ तो मुझे जगा देना अन्यथा मैं तुम्हें जगाऊंगा। इस प्रकार से प्रतिदिन चार बजे से पहले ही आचार्य बलदेव जी शिष्य विवेकानन्द जी को संस्कृत व्याकरण पढ़ाने लगे। यह क्रम चार से पांच वर्षो तक चला। इससे न केवल विवेकानन्द जी को पूर्ण सन्तोष हुआ अपितु उन्होंने संस्कृत के व्याकरण में पूर्ण अधिकार प्राप्त किया और गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ का संचालन कर वैदिक धर्म व संस्कृति सहित आर्यसमाज के गौरव को भी देश देशानतर में स्थापित किया। देश भर में विभिन्न स्थानों पर 8 गुरुकुलों का संचालन कर रहे आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान व संन्यासी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती आचार्य बलदेव जी के ही शिष्य हैं। आपने बताया है कि आचार्यजी व्याकरण के प्रमाणित पण्डित थे। मृत्युपर्यन्त आपको व्याकरण कण्ठस्थ रहा। इस लेख की समस्त सामग्री का श्रेय भी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती व उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य डा. धनंजय जी को है जिसे हमने दूरभाष पर उनसे प्राप्त किया है।
आचार्य बलदेव जी ने सन् 1971 में हरियाणा के कालवां स्थान पर एक गुरुकुल की स्थापना की थी। इस गुरुकुल में उपनिषद, दर्शन व वेद आदि की योग्यता प्राप्त करने के लिए संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित प्रायः सभी शास्त्रों का अध्ययन कराया जाता रहा है। आज के विश्व प्रसिद्ध योग प्रचारक और पतंजलि योग पीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव जी आपके ही गुरुकुल में आपसे सन् 1980 से 1990 के मध्य पढ़े थे। आपके अन्य प्रमुख शिष्यों में स्वामी डा. देवव्रत जी, आचार्य डा. रघुवीर वेदालंकार, आचार्य डा. यज्ञवीर जी, स्वामी विवेकानन्द सरस्वती जी, स्वामी सत्यपति जी, आचार्य अखिलेश्वर जी, स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती जी, आचार्य विजयपाल जी व स्वयं आचार्य हरिदेव जी (स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी) आदि प्रमुख शिष्य हैं। अध्यापन का आपका प्रिय विषय संस्कृत का व्याकरण ही था। आपके प्रमुख गुरुओं में स्वामी ओमानन्द जी सहित पंण्डित शंकरदेव जी, पं. राजवीर शास्त्री व डा. महावीर मीमांसक जी आदि सम्मिलित हैं।
आज प्रातः आचार्य बलदेव जी के निधन से आर्यजगत में सर्वत्र शोक की लहर छा गई है। आपकी अन्त्येष्टि कल 29 जनवरी, 2016 को दिन के 12.00 बजे दयानन्द मठ रोहतक में होगी। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, आचार्य धनंजय आर्य गुरुकुल पौधा, श्री राजेन्द्र विद्यालंकार, श्री वाचोनिधि आर्य, डा. विवेक आर्य, श्री ऋषिदेव आर्य सहित श्री मिथलेश आर्य, श्री अजायब सिंह, श्री विकास अग्रवाल, श्री प्रवीण गुप्ता, श्री नरेन्द्र आर्य, देवेन्द्र सचदेव, श्री धर्मवीर मिरजापुर, श्री रवीन्द्र पाहुचा, श्री सौरभ चैधरी आदि अनेक लोगों ने आचार्य बलदेव जी को श्रद्धांजलि दी है। स्वामी प्रणवानन्द ने उन्हें ईश्वर भक्त, वेदभक्त, दयानन्द-आर्यसमाज भक्त, सच्चा धर्म-संस्कृति का प्रेमी, आदर्श ब्रह्मचारी, संस्कृत विद्या का निष्ठावान प्रचारक, कर्मयोगी, तपस्वी व धर्म व संस्कृति का उन्नायक बताया है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हुए हम श्रद्धेय आचार्य बलदेव जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , अचारिय बलदेव जी के यह संसार छोड़ जाने का दुःख तो आप सब को होगा लेकिन ऐसे महान्पुर्ष सदैव के लिए होते हैं .रामा देव जी ने भी आप से बहुत कुछ सीखा जान कर अच्छा लगा . उन के निधन का बेहद अफ़सोस प्रकट करता हूँ .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज के युग में भी भारत में अनेक महात्मा है जो निःस्वार्थ भाव से देश व दूसरों के हितो व उपकार के लिए अपना जीवन अर्पित करते हैं। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।