सबसे मिलिए धाय
बिना एक बूँद गिराए पन्नियों में पलटते दूध पर उसकी बराबर नज़र थी। कहीं मिट्ठू चूँके तो उसे अच्छे से गरिया दें। मगर मिट्ठू मियां के सधे हाथ बराबर एक लीटर दूध एक लीटर की पन्नी में और आधा लीटर दूध आधे लीटर की पन्नी में डाल फट से गंठियाकर ग्राहक को धराते जा रहे थे। जल्द ही क्रिश यादव भी आश्वस्त हो गए। नज़रें मिट्ठू से हटाकर ग्राहकों की लम्बी लाइन पर टिकाई। कमाई का यही समय है। दफ्तर से घर लौटते लोगबाग आधा-एक लीटर दूध ले अपने घरों को लौट रहे थे। और करें भी क्या? पंछी की चहचहाट के साथ लोकल पकड़ने वालों को और फुर्सत भी कब होती है सब्जी-भाजी, दूध-फल खरीदने की।
अभी दो-तीन ही ग्राहक बचे थे कि उसका फोन घनघना उठा। फोन तो गुस्से में उठाए थे कि काट देंगे कि पता नहीं कौन धंधे के समय टाइम खोटा करने के लिए फोन लगा दिया है कमबख्त। मगर नई नवेली दुल्हन का फोटो देख छ फीट के क्रिश यादव के चेहरे पर चार फीट लम्बी मुस्कान फैल गई सो चट से फोन उठा लिए।
ये क्रिश यादव की दूध की दूकान है, नाम है कृष्णा दुग्धालय। कृष्णा दुग्धालय क्रिश यादव के दादा जी ने खोली थी। ढाई-तीन दशक पहले जब दादाजी पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी इलाके से बम्बई आए थे तो केवल गाय पालना और दूध बेचना ही जानते थे। सो जो जानते थे वही उन्होंने किया, और खूब किया। बाद में कृष्णा दुग्धालय भी खोला। अब यह दूध की दूकान पोते के नाम पर रखी गई या पोता दूकान के नाम पर रखा गया; कोई नहीं जानता। मगर यह तो तय रहा कि बम्बई बदलकर मुम्बई हो गई किन्तु दूध का इनका व्यापार दो पीढ़ी बाद भी नहीं बदला; उल्टा और चल निकला।
इसी दुग्धालय के कैश काउंटर पर बैठे क्रिश यादव ग्राहकों से पैसे ले-दे रहे हैं और मिठ्ठूराम बगल में ही रखे बड़े-बड़े ड्रमों से दूध निकाल-निकाल कर ग्राहकों को पकड़ाते जा रहे हैं। लेकिन इसी बीच उनकी नव ब्याहता का फोन आ गया। अब तक खुद ही सोच रहे थे कि ग्राहक निपटे तो वह फोन लगाए। मगर लो जनाब उसी का फोन आ गया। लाइन में बचे दो चार ग्राहकों को नज़रअंदाज़ करते हुए क्रिश भाई फोन में घुस से गए। बड़ी सी मुस्कान के साथ बोले-
“का हो रहा है…अच्छा….बना का रही हो….ओहो..तुम्हें कौन बताया कि हमें कढ़ी पसंद है… हां हां वो ही बताई होंगी। माताजी तो अक्सर हमारे लिए कढ़ी बनाती हीं हैं। तुमको भी सिखा दीं। हो…हो…हो। तुम को पता है जब हम छोटे थे तो हमें कढ़ी बिल्कुल पसंद ही नहीं थी। मगर एक बार का हुआ कि हम भांडुप वाली अपनी मामी हैं न।……अरे ना ना। वो वाली जो तुम को जबरदस्ती ठड़ाकर के अपनी हाइट तुमसे नाप रही थीं।…..”
लाइन में सबसे आगे खड़े सफारी सूट वाले जनाब का मुंह यह सब सुनकर उतना ही लाल हो रहा था जितना उनके पान खाए हुए होंठ। थोड़ी देर तो सब्र किया फिर अपने लाल होंठ चबाते हुए बोल ही पड़े।
“भाई साहब ज़रा जल्दी करेंगे।”
क्रिश को इ व्यवधान अच्छा नहीं लगा। फिर भी नज़रअंदाज़ करते हुए लगे रहे।
“…हाँ हाँ बस उहे वाली मामी। तो हम छोटे थे तो एक बार उनके यहां रहने गए थे। अब उनके घर जाकर तो हम हकबका गए। मामी के यहां तो जब देखो तब कढ़ीए बन रहा है….”
सफारी सूट वाले भाईसाहब को ये यादों का सफर बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है क्योंकि एक तो वे काफी थके हुए थे और दूसरा कि घर पर उनका इंतज़ार हो रहा था या हो सकता है कि दूध का इंतज़ार हो रहा था ताकि घर के बच्चे और बुज़ुर्ग दूध पीकर सो सकें। दूध की महत्ता को वो अच्छी तरह पहचानते थे। साथ ही संयम का भी। मगर बढ़ते समय को देखते हुए उनका संयम भी टाइम-टाइम पर छूटने वाली फास्ट लोकल की तरह छूट रहा था। सो वो फिर बोले-
“भाई साहब! देर हो रही है। ज़रा जल्दी चार लीटर दूध बंधवा देंगे।”
ए बारी तो क्रिश महाराज झनझनाई गए। उधरे मिठ्ठू जो अब तक रस ले लेके मियाँ-बीबी को सुन रहे थे, उहो चेत गए। बोले -“भैय्या जी। उ गाहक ठाड़ा हैं कब से दूध ख़ातिर।”
ग्राहक तो ग्राहक अब जिसे कुछ नहीँ समझते वो मिठ्ठू तोता भी ठोर मारने लगा। तमतमाकर भोजपुरी में चीखे “अब बे पटक के मारब तोहके। ढेर भईल बाड़। लउकत नईखे। फोन पर बतियावत हईं।”
फिर अचानके ध्यान आया कि फोन पर रुनझुन सब सुन ली होगी।
“रुनझुन। हम तुमको बाद में। फोन करते हैं।……अरे कुछ नहीं हुआ। हम तुमको फोन करते हैं न।”
इ मिठ्ठू का बिआह नहीं हुआ है इसलिए सरऊ जरता(जलता) है। और ई लाइन में ठड़ा आदमी भी जरता है। इसको इसकी मेहरारू प्यार नहीं न करती होगी इसलिए। इसको तो सबक सिखाए के पड़ी।
“जनाब। दूध ख़तम हो गया है। नहीं है। आपको जहाँ के लिए ना था आप जा सकते हैं।”
“अरे अभी तो पूरा ड्रम भर के है आपके पास और आप कह रहे कि ख़तम हो गया।”
क्रिश ने कुर्सी पर अपनी पीठ को टिकाते हुए आराम से पीछे टेककर और सर खुजाते हुए कहा -“वो क्या है न अंकल जी कि एक रेस्टोरेंट वालों ने बुक कर लिया।”
अंकल जी समझ गए कि उनकी बेइज़्ज़ती की जा रही है इसलिए उन्होंने आगे यह नहीं पूछा कि अभी तो लाइन में खड़े ही हैं तब तक किसी रेस्टोरेंट वाले ने कैसे बुक कर लिया। बस झल्लाहट में पाँव पटकते हुए वहाँ से चले आए।
अब तो यह सिलसिला चल पड़ा। क्रिश ने जब भी लाइन में उन पान खाए सफारी सूट वाले अंकल को देखा तो हाथ खड़े कर दिए। कुछ दिन तक तो वो नज़र आए मगर फिर लुप्त हो गए। बार-बार बेइज़्ज़त होने के बाद वो फिर नहीं आए।
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कुछ हफ़्तों बाद क्रिश यादव पासपोर्ट ऑफिस के बाहर लाइन में खड़े थे और अपने आगे-पीछे वालों से जानकारी भी इकठ्ठी कर रहे थे। मसलन ऑफिस कितने बजे खुलता है। किसका नंबर कितनी देर में लगता है। क्या-क्या डाक्यूमेंट्स लगाने होते हैं। कितने दिन में तैयार हो जाता है।
दरअसल क्रिश यादव शादी के बाद घूमने के लिए मॉरीशस जाना चाहते हैं; जैसाकि उनकी पत्नीजी ने डिमांड की है। बड़ी मेहनत से वे सब चीजों का पता लगाकर यहाँ तक आए हैं। कागज़-पत्तर के काम में उन्हें बड़ी ऊब बरती है और उलझन होती है। मगर बीवी का कहा टाल भी नहीं सकते। क्या करें, बीवी की ख्वाइश है मॉरीशस घूमने की।
का करें, सूरज भगवान जी कपारे चढ़ गए हैं लेकिन नंबरवे नहीं आया। कभी लाइन में ठाड़ा नहीं न हुए। खाली दूसरों को किए हैं। एक-एक आदमी को दुई-दुई घंटा बिठा के जाने का गड़हा खोन रहे हैं। इ लो भगवान जी की किरिपा से नम्बरवा आ ही गया।
क्रिश ने पासपोर्ट ऑफिसर के यहाँ हाजिरी लगाई। क्रिश ने सोचा कि इ आदमी को हम कहीं देखा हूँ। कहाँ देखा हूँ हमको ख्याले नहीं पड़ रहा है और इ सफारी सूट वाले अदमी हैं कि लाल होंठ किए मुस्कुराए जा रहे हैं जैसे इ हमको अच्छे से पहचानते हों। नाम के बोर्ड पर तो नारायण श्रीवास्तव लिखा है। नामों नहीं सुने हैं कभी।
“किसके नाम पर पासपोर्ट बनवाना है?”
“जी! हमारे और हमारी पत्नी के नाम से?”
“आपका नाम”
“कृष्ण प्रसाद यादव”
“हम्म….पत्नी का नाम”
“रंजना यादव”
“मॉरीशस जाना चाहते हैं?”
“जी”
“क्यों जाना चाहते हैं?”
“जी?”
“माने उद्देश्य क्या है? पर्पस …पर्पस..”
“घूमने के लिए…..अभी शादी हुई है तो…..”
“अच्छा….हनीमून।….सारे डाक्यूमेंट्स लाए हो। टेंथ का मार्कशीट, घर का एड्रेस प्रूफ, आईडी।”
“जी…देख लीजिए सब है।”
“ये अड्रेस प्रूफ और आई डी नहीं चलेगी।”
“नहीं चलेगी …मतलब….यही तो लगता है।”
“कौन बोला।”
“सब कहते हैं….अभी लाइन में जो लोग खड़े थे वो ही कह रहे थे।”
नारायण श्रीवास्तव मेज पर दोनों कुहनियाँ आराम से टिकाते हुए आगे झुके और क्रिश के एकदम करीब आए और आँखों में आँखें डाली। नज़रें मिलते ही क्रिश को पिछले दिनों घटा सारा वाकया याद आ गया। मगर याद आना काफी नहीं था। अब तो नारायण श्रीवास्तव की पारी थी। सो वो अपनी पारी की समाप्ति शानदार छक्के से करते हुए बोले –
“तो जाओ…लाइन में खड़े उन्हीं लोगों से अपना पासपोर्ट बनवा लो।”
अपने आसन पर यथास्थिति लौटते हुए सज्जन श्रीवास्तव चिल्लाए “नेक्स्ट”।
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पासपोर्ट ऑफिस के अहाते में ठाड़ा होकर क्रिश अफिसिया को टुकूर-टुकूर ताक रहे थे कि एक ठो दरबान नज़र आए। पास जाकर फुसफुसाए –
“ये लाला साहेब कब से इस आफिस में कब से काम कर रहे हैं?”
“हाल ही में आए हैं”
“मतलब जल्दी जानेवाले नहीं हैं। अच्छा ये रहते कहाँ है?”
“स्टेशन के पास कृष्णा दुग्धालय देखा है आपने?”
क्रिश मन ही मन मुस्कुराए और सोचा ‘सरऊ हमको पूछ रहे हैं कि सीसा देखें हैं’। मगर दूध का जला छाछ भी फूंकता है।
“हां देखा है…आगे बताइए”
“उसी के पीछे एक गली है। उसी गली में सुगंधा अपार्टमेंट्स है। वहीं रहते हैं।”
“बढ़िया। धन्यवाद भाई साहब”
सेकेंडों में क्रिश घर के रास्ते पर था। यही सोच रहा था कि रुनझुन को क्या कहेगा। सोच भी लिया कह देगा कि कोर्ट-कचहरी का काम और पासपोर्ट का काम इतना आसान है क्या। टाइम लगता है। बनते-बनते बनेगा पासपोर्ट। मगर बन जाएगा। तब तक कपड़े-गहने तैयार करे। क्या ले जाना है क्या नहीं। उसकी जौनपुर वाली मौसी भी तो वहीं रहती है। उनके लिए भी तो कुछ ले जाना होगा। सब शॉपिंग-वोपिंग कर के रखे तब तक।
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बेचारे क्रिश का चेहरा ही उतर गया था। काम में मन नहीं लगता था। सोचते रहते थे मॉरीशस कैसे जाया जाए। नकली पासपोर्ट? नहीं इतना दुस्साहस नहीं कर सकते थे। यही सब सोचते हुए झल्लाहट में रहते थे और दूकान के लड़कों पर वजह-बेवजह चिल्ला देते थे।
तभी एक दिन सड़क पर नारायण श्रीवास्तव गुज़रते हुए दिखाई दिए। जाने क्रिश यादव को क्या सूझी कि कंटेनर से ड्रमों में दूध उलट रहे मिट्ठू को तुरन्त आने को कहा। सब छोड़कर आने को कहा।
“हई पिछला गली में सुगंधा अपार्टमेंट देखले हउआ।”
“देखले त नइखीं, बकि जोह लेब।”
“त जो। दू लीटर दूध ले ले जो। नारायण श्रीवास्तव के घरे दे ले आउ। कहिअ अउरी चाहीं त अउरी घरे पहुंचा दिहल जाई। कृष्णा दुग्धालय क ह।”
“ठीक ह”
मिठ्ठू को माजरा कुछ समझ नहीं आया। मगर काम बखूबी करके लौटा। अभी नारायण श्रीवास्तव घर नहीं पहुंचे थे कि दूध पहुंच गया।
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नारायण श्रीवास्तव कुछ ही दिन पहले मुंबई आए थे। यार – दोस्तों के चलते अच्छी जगह किराए पर फ्लैट भी पा गए थे। आस-पास में साग-भाजी-फल-मिठाई-दूध-दही सबकुछ मिल जाता था। और तो और स्टेशन भी पास ही था। कहीँ आना-जाना हो या किसी को लाना ले जाना हो तो सुभीता था। वैसे भी मुम्बई घूमने वाले रिश्तेदारों की बाढ़ सी लगी रहती थी। उनका टू बेडरूम फ्लैट एक छोटा-मोटा गाँव बना रहता था।
उनकी पत्नी मेघना श्रीवास्तव को बाहर का खाना न तो पसन्द था और न ही बच्चों को खाने देती थीं न बडों को। मिलावटी खाने से दूर रहने का उनका यह एक उपाय था। उन्होंने यहां आते ही पता कर लिया कि कहाँ क्या मिलता है और कहाँ शुद्ध चीज़ें मिलती हैं और कौन सी दुकाने किफायती हैं। इसी उपक्रम में उन्हेँ पता चला कि कृष्णा दुग्धालय कई दशकों से गाढ़ा और शुद्ध दूध सही कीमत पर बेचने के लिए जाना जाता है। अच्छे-अच्छे रसूखदारों के यहाँ दूध इसी की दुकान से आता है।
बस फिर क्या था। श्रीमान जी को समझा दिया कि दफ्तर से लौटते समय कृष्णा दुग्धालय से ही दूध ले आया करें। एकाध बार नारायण जी ने यहां-वहां से दूध लाने की धृष्टता की थी। परिणामस्वरूप दूध के गुण-दोषों सहित, उसका बच्चों के विकास पर असर और टीवी-न्यूज़पेपर में मिलावट से जुड़ी सारी ख़बरों का इनसाइक्लोपीडिया सुनने को मिला। फिर नारायण जी ने वह गलती नहीँ दुहराई। सोचा भी नहीं। थोड़ी देर से ही सही, लाइन में लग कर ही सही, मगर वे वहीं से दूध ले आते थे। यहाँ तक कि उस दिन हुई बेइज़्ज़ती के बावजूद दो-चार दिन यह सोचकर जाते रहे कि मामला रफ़ा-दफ़ा हो। मगर ऐसा हुआ नहीं। क्रिश यादव के गर्म खून ने होने ही नहीं दिया। तब से लेकर अब तक वे लाते किसी और दूकान से थे मगर गृह क्लेश के डर से कृष्णा दुग्धालय का बताते थे। मेघना को शक़ तो हुआ मगर झूठ बोलने का कोई कारण न पाकर यकीन कर लिया।
आज सब्जी-भाजी और रोज़ की तरह चार लीटर दूध लेकर उन्होंने घर में प्रवेश किया। मेघना ने सब्जी का थैला और दूध की पन्नी ले ली। हाथों से ही पन्नी का वज़न तौलते हुए बोली –
“यह तो चार लीटर लग रहा है।“
“हाँ तो चार लीटर ही तो है। चार लीटर ही तो लाता हूँ रोज। ज़्यादा लाना था क्या?”
“नहीं-नहीं। दो लीटर तो आपने भिजवा दिए थे तो फिर चार लीटर और लाने का मतलब।“
“भिजवा दिए थे मतलब?”
“अरे! कृष्णा दुग्धालय से आदमी आया था और दो लीटर दूध दे गया। मुझे लगा आप ही ने भिजवाया होगा।“
“अच्छा!”
नारायण जी को गहन मुद्रा में खोया देख मेघना घबरा गई।
”आपने नहीं भिजवाया था? हाय राम! किसका दूध हमारे घर दे गया। मैंने तो उबलने भी रख दिया।“
नारायण जी ने बात को संभालते हुआ कहा-
“नहीं-नहीं। मैंने ही भिजवाया था। टाल-मटोल कर रहा था तो मुझे लगा कि पता नहीं भेजेगा कि नहीं इसलिए….”
“अच्छा-अच्छा। चलिए कपड़ा-वपड़ा बदल लीजिए। चाय चढ़ाती हूँ।“
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यह सिलसिला चल पड़ा। नारायण जी के घर चार लीटर दूध अपने आप पहुँच जाता। नारायण जी भी कृष्णा यादव की माया देख रहे थे। थे तो आखिर सज्जन व्यक्ति ही सो पिघल गए। दुकान पर पहुंचे और बोले-
“पूछताछ के लिए पुलिस घर आएगी। देख लेना।“
इ सुनकर क्रिय यादव गए सकपका। एक तो मनो लीटर दूध भी गया और इ हमरे खिलाफ कोई कम्पलेन-उम्पलेन भी कर दिए।
“किसलिए सर?”
”पासपोर्ट के लिए”
प्रान में प्रान आए। क्रिश यादव खुस।
”ओह…! मगर पेपर….दस्तावेज?”
”वो तो तुम उस दिन मेरे दफ्तर में ही छोड़ आए थे।“
”ओह! मैं भी कितना भुलक्कड़ हूँ……मगर पासपोर्ट का एप्लिकेशन फी?”
“आज के चार लीटर दूध का पैसा मिलाकर पूरा हो जाएगा। तुम्हारा…..एप्लिकेशन फी”
“धन्यवाद सर। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। उस दिन के लिए भी माफी चाहता हूँ।“
“कोई बात नहीं। बस रहीम का वो दोहा सदा ध्यान में रखना”।
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बहुत ही उपयुक्त कहानी आदरणीया, नहले पर दहला, दूध के बदले पासपोर्ट, वाह वाह, वाह रे कचहरी
धन्यवाद