ग़ज़ल
जो मतिभ्रमित हैं, उनके लिये :
सिर्फ तेरा ही नहीं है ज़िन्दगी पर एख्तियार,
और भी कुछ लोग इसमें हैं बराबर के शुमार।
ज़िन्दगी के फैसले होते अहम हैं, इसलिये,
इनको लेते वक्त लाजिम है कि हो सबसे विचार।
ज़िदंगी तेरी सही, लेकिन फ़कत तेरी नहीं,
कर्ज़ इस पे कितने लोगों का है, ये करले विचार।
चार दिन में सर्द पड़ जाता है उल्फत का उबाल,
और रह जाता है बस तंजो – रफ़ा का कारोबार।
राहे – फर्दा पर तू अंधे की तरह मत कर ख़िराम,
मश्विरा उनका ज़रूरी है जो कर आए गुज़ार।
वो न होते, तू न होता, उनसे है हस्ती तेरी,
माँ – पिता के चैन का तुझ पर भी है दारोमदार।
फैसला तो कर मगर इस बात के मद्देनज़र,
कितने पाएँगे खुशी और कितने होंगे शर्मसार।
‘होश’, जिनकी उम्र इक, तुझको बनाने में गयी,
उनकी रुसवायी हो, ऐसे काम से तू कर किनार।
एख्तियार – अधिकार; शुमार – शामिल;
लाजिम – आवश्यक; तंजो-रफ़ा – मन मुटाव;
राहे-फर्दा – भविष्य; खिराम – चलना;
कर आए गुज़ार – उस रास्ते चल चुके लोग;
दारोमदार – जिम्मेदारी; मद्देनज़र – ध्यान में रखना;
शर्मसार – शर्मिंदगी; रुसवाई – बेइज़्ज़ती
किनार – किनारा करना, दूर रहना, avoid