कविता
गाँव के सन्नाटे में
जब खिलती है चाँदनी रात
कौन पूछे ?किससे कुशलात
खिलखिलाते आँगन
हो गये हैं मूर्छित
पगडंडियां झाँक आतीं हैं
उस मोड़ तक
जहाँ से हँसी के कहकहे इठलाते हुए समा जाते थे
गाँव में
घरों ने झुका लिये हैं सिर
घुटनों के बीच में
सोचते हैं उदास हलधर आखिर क्यों खरीदी पढ़ाई
आनाज बेचकर ?
चौखट पर टिमटिमा रहे हैं
बूढ़े दीपक
अकेलेपन से चूर-चूर होकर
वे बूझना चाहते लेकिन
कतरा कर निकल जाती है हवा भी
अब त्योहारों पर
नहीँ सजते है घर, बजती हैं
फोन की घन्टियां
आँखों पर धुंधले हो उठते हैं
दो टुकडे काँच के
झुर्रियां थोड़ी पसर कर
पुनः सिमट जाती हैं.
— कल्पना मनोरमा
कविता अच्छी लगी .