संस्मरण

मेरी कहानी 100

हमारे पिता जी और हमारे ताऊ जी इस दुनीआं से चले गए थे लेकिन जो जो दुःख हमें अपने लोगों से ही मिले वोह इतने थे कि हमारा सारा खानदान हमेशा के लिए ज़ख़्मी हो जाता लेकिन कहते हैं कि आप का लोगों के साथ अच्छा विवहार कभी बेअर्थ नहीं जाता .ताऊ जी के जाने के बाद जो कुछ हुआ ,इस में लोगों ने हमारी बहुत मदद की . एक बात मेरे ज़हन में हमेशा रहती है कि अगर सारे बजुर्ग कहीं से जिंदा हो कर मेरे सामने पांच मिनट के लिए ही आ जाएँ तो मैं उन से पूछूँ कि तुम खामखाह एक दुसरे से दुश्मनी रखते रहे और एक दुसरे की मौत पर ख़ुशी मनाते रहे ,तो रहे तो तुम खुद भी नहीं ,फिर काहे को दूसरों को दुःख देते रहे ,एक दुसरे का नुक्सान करते रहे .

शुरू से ही हमारे घर की एक ऐसी मरिआदा थी कि जिस के कारण लोग हमारे घर से अछे ताउलक रखने के इछुक होते थे . अब यह हमारा घर गाँव के बाहर पिताजी ने इंगलैंड से वापस आ कर बनाया था और यह हमारा तीसरा घर था . दुसरे दो घर बेच दिए गए थे .यह घर हमारे खेतों से दो सौ गज के फासले पर ही था ,जब कि दुसरे घरों से हमारे खेत बहुत दूर हुआ करते थे क्योंकि घर गाँव के बिलकुल दूसरी ओर था . अब तो लोगों ने बहुत बड़े बड़े मकान बना लिए हैं लेकिन उस वक्त हमारे घर को लोग कोठी वाले भी कह देते थे . जब पहले पहल पिताजी ने मकान के लिए किसी से ज़मीन खरीद कर यह मकान बनाया था तो यह घर अकेला ही होता था ,इर्द गिर्द घर बहुत दूर दूर थे ,इस लिए माँ इस घर में शिफ्ट होना चाहती नहीं थी कि वोह किस के साथ बातें करेगी .

दादा जी बताया करते थे कि माँ इस घर में रोया करती थी बेछक यह घर बड़ा और सुन्दर था ,फिर भी उस का मन इस घर में लगता नहीं था .पुराने घर में तो वोह हर दम औरतों से घिरी रहती थी ,कोई चरखा ले कर बैठी होती ,कोई कढ़ाई का काम करती ,कोई यों ही वक्त पास करने के लिए बैठी होती और इधर उधर की बातें करती रहतीं। कुछ देर बाद इस नए घर के पास भी धीरे धीरे कुछ मकान और बन गए और माँ को पड़ोसी मिल गए ,खास कर एक घर जो हमारे घर के सामने बना था उसे में कई भाई रहते थे और उन में तीन चार भाई तो गूंगे ही थे। वोह बहुत अजीब बोलते थे ,उन की कोई बात समझ नहीं आती थी लेकिन माँ का उन से मोह पियार बहुत बढ़ गिया था, माँ उन की हर बात उन को इछारों से समझ जाती थी और जब वोह हमारे घर में नहीं होते तो माँ उन की मिम्करी करके उन की बातें हमें बताती । यह सभी लड़के खेती का काम करते थे और बहुत समझदार थे। हमारे घर में आते जाते ही रहते थे और माँ से बहुत लगाव रखते थे इस लिए जल्दी ही माँ का दिल इस घर में लग गिया था । जब पहली दफा हम ने उन गूंगे लड़कों को देखा था तो हमें बहुत अजीब लगा था लेकिन धीरे धीरे हमारे लिए भी सब नॉर्मल हो गिया।

पता नहीं कितने सालों से हम जट्ट मुहल्ले में रहते रहे थे और एक एक घर को हम अच्छी तरह जानते थे। यह जट मुहल्ला काफी बड़ा था और इस में ज़िआदा तो जट ही थे लेकिन तरखान ब्राह्मण मिश्र और पार्टीशन से पहले तो मुसलमान भी रहते थे और मैं तो मुसलमान औरत रहमी के घर उन के बच्चों के साथ खेलता भी रहता था लेकिन इस नए घर के करीब ज़िआदा कम्बोज लोग ही थे ,इस लिए इस को कम्बोज मुहल्ला कहते थे . यहाँ आने से नए पड़ोसी मिल गए थे .बेछक हमारा गाँव काफी बड़ा था लेकिन इन कम्बोज लोगों के भी पहले से हम काफी वाकफ थे किओंकि हमारे खेत और कूआं कम्बोज मुहल्ले के नज़दीक ही थे और अपने खेतों को आने जाने से सभी कम्बोज लोग वाकफ थे .

गाँवों की एक ख़ास बात यह होती है कि गाँव चाहे कितना भी बड़ा कियों ना हो सभी लोग एक दुसरे को जानते ही होते हैं ,इस लिए माँ जल्दी ही लोगों से घुल मिल गई थी और अब उसे कोई झिजक नहीं थी . सबसे बड़ीआ बात इस घर की यह थी कि यह घर बिलकुल गाँव की रिंग रोड पर ही था और सड़क पर से ही घर को जाने के लिए बड़ा गेट था जिस से कार को आसानी से भीतर ले आया जाया जा सकता था। कुछ ही वर्षों में गाँव में कितनी तब्दीली आ गई थी। बहुत पहले मैंने लिखा था, जब हमारे सारे गाँव के ऊपर ऊपर से एक रास्ता बनाया गिया था और बहुत लोगों की जमींन इस रास्ते के कारण खराब हो गई थी तो बहुत झगडे हुए थे। तब इस नए रास्ते को फिरनी बोलते थे। अब यही रास्ता एक रिंग रोड बन गिया था और यह सारी सड़क पक्की बन गई थी। इस रिंग रोड पर अब दोनों ओर मकान दुकाने वर्कशौपें और बैंक बने हुए हैं। अब तो राणी पुर शहर जैसा बन गिया है। 1973 में जब हम गए थे तो रिंग रोड पर इतने मकान अभी बने नहीं थे।

बड़े भाई अजीत सिंह भी अफ्रीका से आ गए थे , मैं और छोटे भाई निर्मल ने बड़े भाई को बहुत वर्षों बाद देखा था। पिताजी के जाने के बाद घर में हमें बहुत परेशानीआं आने लगीं थी। हम तो बाहर ही रहते थे ,सिर्फ छोटे भाई निर्मल को ही सारी बातों का पता था। पहली बात तो यह थी कि पिता जी ने बहुत लोगों को उधार पैसे दिए हुए थे जिस के पेपर तो निर्मल के पास ही थे लेकिन जिन जिन लोगों ने पैसे लिए थे ,सभी कह रहे थे ,” आप के पिता जी का हमारे साथ रिश्ता भाईओं जैसा था ,हम ने उस को पैसे वापस दे दिए थे लेकिन हम ने कोई लिख लिखाई नहीं की थी ,ओ जी हमारी तो बहुत मुहबत थी उन के साथ “. सभी ऐसा कह रहे थे और आखर में किसी ने एक भी पैसा हमें वापस नहीं किया था। अब हमारे पास इतना वक्त तो था नहीं कि हम कोर्ट में केस करें ,निर्मल अभी छोटा था और उस को भी अभी इतनी समझ नहीं थी। आखर में हम पैसे को भूल ही गए लेकिन जो पैसे हमारे पिता जी के बैंक में थे और ज़मीन थी उसका तो कोर्ट में ही होना था। कुछ दिन हम फगवाड़े कचहरी में जाते रहे और सारा काम जल्दी ही हो गिया।

अब एक मुसीबत यह थी कि पिता जी ने गेंहूँ तो खेतों में बीज दी थी लेकिन अभी कुछ और फसलें बीजने वाली थीं लेकिन पिता जी ने ट्रैक्टर बेच दिया था और नया लेने का विचार था। निर्मल को ही इन बातों के बारे में पता था। खेतों में हल चलाने के लिए कुछ नहीं था। फिर मेरे दिमाग में आया कि बहादर के भाई लड्डे के पास ट्रैक्टर था। मैं उस के घर गिया और सारी बात उस को बताई और पैसे देने के बारे में बोला। लड्डे ने अपने चाचा गुरदयाल सिंह के लड़के को ट्रैक्टर दे कर भेज दिया। (बहादर के चाचा जी गुरदयाल सिंह जो राणी पुर स्कूल में मास्टर भी हुआ करते थे और हम उन से पड़ा करते थे ,दो साल हुए 90 साल के हो कर यह संसार छोड़ गए हैं ). गुरदयाल सिंह का लड़का देविन्दर जिस को उस वकत कुक्कू ही बोलते थे ट्रैक्टर ले कर आ गिया और सारे खेतो में हल चला दिया। मैंने कुक्कू को पैसे देने की बहुत कोशिश की लेकिन उस ने पैसे लिए नहीं ,फिर मैं घर गिया और लड्डे को पैसे देने की कोशिश की लेकिन वोह गुस्से हो कर कहने लगा ,” यार गुरमेल !कैसी बातें करता है तू ,यह छोड़ ,कोई और काम हो तो बता “. फिर मुझ में कुछ और कहने की हिमत्त नहीं हुई।

यों तो मैंने खेती का सारा काम किया हुआ था लेकिन अब की बातें और थीं .खेतों में ट्यूबवैल लगा हुआ था ,जिस पर बिजली कभी आती थी और कभी नहीं आती थी । ट्यूबवैल वाले कमरे की छत पर एक बल्व लगा हुआ था जो हमारे घर से दिखाई देता था। जब ही बिजली आती बल्व जग जाता और हम भाग कर ट्यूबवैल की ओर भाग जाते और सविच ऑन कर देते ,जिस से पानी खेतों को जाना शुरू हो जाता। कुछ घंटे बिजली रहती ,कुछ खेतों को पानी आ जाता और फिर अचानक बिजली चले जाती। ऐसे ही बिजली की आँख मचोली लगी रहती। सारा काम तो निर्मल ने ही संभाला हुआ था क्योंकि गाँव में रहते उसको हर बात का इल्म था और हम तो उस की मदद ही करते थे जिस से उसका हौसला भी दुगना हो जाता था । शायद दसंबर का महीना आ गिया था और गेंहूँ भी अब आधा फुट ऊंची हो गई थी ,इस लिए पानी की जरुरत तो लगी ही रहती थी।

फिर एक दिन अचानक ट्यूबवैल खराब हो गिया ,बहुत कोशिश की लेकिन ठीक नहीं हुआ। अब मैं और बड़े भाई कुछ जानते नहीं थे ,निर्मल कहने लगा ,” भाई ! नंगल सपरोड़ गाँव में एक मकैनिक है वहां चलते हैं “. मैं और निर्मल दोनों बाइसिकल ले कर नंगल को चल पड़े। मकैनिक घर पर ही था ,उस से बात की और वोह उसी वक्त हमारे साथ चल पड़ा। उसने आ कर बहुत कोशिश की ,कभी पानी आने लगे कभी अचानक बंद हो जाए। फिर उस की समझ में आया कि बोर किये हुए पानी के पाइप में कहीं छोटा सा छेद है जिस के कारण पाइप में हवा आ जाती है और प्रेशर कम हो जाता है और पानी आना भी बंद हो जाता है। फिर उस ने एक नया तरीका ढूंढा ,उस ने बाहर का पाइप यहां से पानी आता है उस को पाइप के साइज़ की एक लकड़ी बना कर उस को पाइप में ठूंस दिया और हथौड़े से ठोंक दिया। फिर सविच ऑन कर दिया। एक मिनट में ही इतना प्रेशर हुआ कि पानी जोर से आने लगा। आधा घंटा वोह मकैनिक हमारे पास रहा और बोला ,” नुकस तो अभी है ,लेकिन जब तक चलता है तुम अपना काम चलाओ ,फिर किसी दिन मैं देख लूंगा “.

वोह चला गिया ,दो घंटे पानी आता रहा और फिर अचानक बंद हो गिया। बहुत कोशिश की हम ने ,जो मकैनिक ने लकड़ी का टुकड़ा पाइप में ढूँसा था ,वोह भी हम ने ठूंस कर देखा लेकिन अब तो ट्यूबवैल ने बिलकुल ही जवाब दे दिया, मैं ना मानूं वाली बात हो गई। शाम हो गई थी ,निराश हुए हम घर आ गए। मैं और बड़े भाई ने तो गाँव से वापस आ जाना था लेकिन निर्मल भाई ने तो वहीँ रहना था, उसका चेहरा देखकर मुझे बहुत दुःख हो रहा था। एक किसान को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है ,यह देश की हकूमत जान ले तो इतनी ख़ुदक़शीआं नहीं होंगी ,जब अन्दाता ही मुसीबतें झेल झेल कर भूखों मरने तक की नौबत पर आ जाए तो देश में अकाल संकट कितनी देर तक बचाया जा सकता है। बचपन में धनी राम चात्रिक की एक पंजाबी की कविता किसान के बारे में पड़ा करते थे ,जिस में उस ने किसान की हालत बिआन की हुई थी जो बहुत लम्बी कविता थी। उन्होंने लिखा था ,” ऐ किसान ! मुठ विच तेरा कालजा बदलां विच धियान ” यानी बार्ष न हो तो तब भी दुःख ,ज़्यादा बर्ष हो जाए तो भी दुःख।

जब हम घर आ गए तो तीनो भाई मशवरा करने लगे कि अब किया कीया जाए क्योंकि फसलें सूखने का डर बना हुआ था और सर्दी भी बढ़ रही थी। हमारे घर में एक तरफ बहुत बड़ा इंजिन रखा हुआ था जो पिता जी ने बहुत पहले लिया था। यह इस लिए लिया था कि उस वक्त हम को ट्यूबवैल के लिए बिजली का कुनैक्षन अभी मिला नहीं था और इस लिए ट्यूबवैल, इंजिन पर ही चलता था। यह बहुत बड़ा इंजिन था , जैसे पहले पहले आटा पीसने वाली चक्किओं के होते थे। यह रेलवे इंजिन की शकल का था। निर्मल कहने लगा ,” भैया इस इंजिन को खेतों में ले जाना कुछ कठिन है लेकिन इस से हमारा काम चल सकता है लेकिन यह इंजिन हमारे ट्यूबवैल पर चल नहीं सकता ,इस लिए एक दूसरे किसान के ट्यूबवैल पर ले जाना होगा जो इंजिन पर ही चलता है “.

निर्मल एक पड़ोसी के घर गिया और उस को कहा कि कुछ देर के लिए वोह अपने बैल हमें दे दे ,ताकि हम अपने इंजिन को खेत तक ले जा सकें। इंजिन को चार लोहे के छोटे छोटे पहिये लगे हुए थे। बड़े भाई इंजिन मकैनिक थे ,उन्होंने इंजिन की सर्विस कर दी और इंजिन को एक हैंडल से घुमाया। धक धक धक आवाज़ आणि शुरू हो गई और इंजिन चल पड़ा और ऐग्ज़ॉस्ट पाइप जो ऊपर की तरफ जाता था ,उस में से धुआं निकलने लगा । तेज़ स्पीड पर किया और इंजिन का धुआं चैक किया। इंजिन ठीक से चल रहा था। सुबह को इंजिन खेत में ले जाने का प्रोग्राम तय हो गिया ,शाम हो गई और माँ आवाज़ दे रही थी ,” आ कर रोटी खा लो !” . हम रसोई की तरफ चले गए जो बाहर ही बनी हुई थी। माँ मक्की की रोटीआं पका रही थी और एक तरफ साग वाली कड़ाही पडी थी जो धीमी आंच पर रखी हुई थी और उस में से लसुन और अधरक की खशबू आ रही थी। देख कर हमारी भूख भी तेज़ हो गई थी और हमारा सारा धियान खाने की तरफ हो गिया था।

चलता। . . . . . . . . . .

 

10 thoughts on “मेरी कहानी 100

  • मनजीत कौर

    आदरणीय भाई साहब आपकी कहानी के १०० एपिसोड पूरे होने की आप को बहुत बहुत बधाई । जितनी मेहनतऔर लगन से आप अपनी आत्मकथा लिख रहे है उतने ही ज्यादा चाव और रोचकता से हम पड़ रहे है और आनंद ले रहे है आपकी आत्मकथा में जीवन के हर रंग है देश विदेश दोनों के बारे में भरपूर जानकारी मिल रही है । ये एपिसोड भी बहुत अच्छा लगा आप ने किसानो की हालत के बारे में बखूबी ब्यान किया है सच में सारे देश का पेट भरने वाला अन्दाता खुद कितनी मुसीबते झेलता है भूखे रहता है ये कोई नहीं जानता । मेरी और से एक बार फिर से आपको बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाए

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने अपनी आत्मकथा जिस बेबाकी से लिखी है, ऐसी बेबाकी और ईमानदारी महात्मा गांधीजी की आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में हमें दिखी थी, उसके बाद कई आत्मकथाएं हमने पढ़ीं, लेकिन ऐसी बेबाकी हमें नहीं दिखी. अद्भुत लेखक की अद्भुत रचना.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन, धन्यवाद . मुझे इस से और भी हौसला अफजाई मिली है .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपको आत्मकथा के एपीसोड्स का शतक पूरा होने की कोटिशः बधाइयां. हमें तो ऐसा लग रहा है, जैसे कल ही आपने आत्मकथा लिखनी शुरु की और 100 एपीसोड हो भी गए, पता ही नहीं चला. ऐसे ही हौसला बनाए रखिए. यह एपीसोड तो गज़ब का है. जीवन के सभी खट्टे-मीठे रस इसमें आ गए हैं. तीनों भाइयों के संगठन और चतुराई से सारे काम बन गए. आप लोगों के परिवारों ने मर्यादा की अनुकरणीय मिसाल कायम की है. अद्भुत एपीसोड.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन, यह एपिसोड और अगला एपिसोड जो कल को आएगा इस लिए भी मेरे लिए दिलचस्प है कि तीन देशों में रह रहे तीनों भाई पहली दफा और आख़री दफा इक्कठे हुए थे . लेखा को वाह वाह मिलती रहे तो उस को आगे लिखने की चाहत बनी रहती है .

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख पूरा पढ़ा। रोचक लगा। एक किसान की तकलीफो के बारे में कुछ कुछ ज्ञान हुआ। महर्षि दयानंद ने किसान को राजाओं का राजा कहा है परन्तु वर्तमान समय में हमारे किसान बहुत दयनीय स्थिति में हैं जिसका अनुमान करके पीड़ा होती है। अनेक काम्बोज बंधू देहरादून में मेरे मित्र हैं। पूरी क़िस्त पठनीय एवं महत्वपूर्ण है। सादर धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , लेख पसंद करने के लिए धन्यवाद . किसान तो शुरू से ही अजीब स्थिति में रहे हैं लेकिन उस समय कोई आताम्हात्य

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई ,लेख पसंद करने के लिए धन्यवाद . किसान तो शुरू से ही मुश्कलों का सामना करता आया है लेकिन पहले आताम्ह्त्याएं नहीं होती थीं .खेती बैलों से की जाती थी और बल्दों को चारा दे दिया और काम करते रहे .पैस्तेसाइड होते नहीं थे किओंकि बिमारीआं भी नहीं होती थीं .अब तो खाद पर खर्च तिऊब्वैल का खर्च ट्रैक्टर का खर्च .और भी बहुत खर्च हैं और किसान ने बैंक से कर्जा लिया होता है .फसल बर्बाद हो गई तो कर्जा सर चड़ जाता है .एक दो घर में शादिआन करनी पड़ जाए तो कर्जा इतना हो जाता है कि किसान को आत्महत्या के सिवाए दूसरा कोई रास्ता नहीं दिखाई देता .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाईसाहब, आपके संस्मरणों की यह किस्त पढकर भी अच्छा लगा। दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं। एक ओर तो हम अपने सगे संबंधियों से धोखे खाते हैं, तो दूसरी ओर अच्छे दोस्त भी मिल जाते हैं। हमें भी ऐसे अनेक अनुभव हुए हैं।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , आप ने बिलकुल सही कहा कहा . अपनों ने ही हमें दुःख दिया लेकिन दूसरों से हमें बहुत कुछ मिला . सारी जिंदगी में मैंने यह भी जाना है कि जो लोग ज़िआदा दुखी करते हैं ,उन की कोई कमजोरी होती है ,जिस लिए दूसरों से जलन हो जाती है .इसी लिए वोह बार बार वोह काम करते हैं ,जिस से दुसरे को नुक्सान हो . भगवान् की कृपा से हमारा घर तो पर्फुलत है लेकिन ताऊ जी का नाम गाँव से गाएब हो गिया है ,जिस की मुझे कोई ख़ुशी नहीं है बल्कि दुःख है किओंकि मैं तो वैसे ही तौल्कात रखने का इछक था .

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