वो कनकनी के धुन्ध
वो कनकनी के धुन्ध !
मेरा रास्ता साफ करों
हम नये-नये गेहूं के नव अंकुर,
बच्चे के समान,
तुमसे गुहार लगा रहे हैं,
•वो कनकनी के धुन्ध !
तुम्हारे अन्दर जो शीतलता समाई है,
उसके ठण्ड के डर से हम,
लुका छिपी खेल रहें हैं ।
आपस में इसी बहाने,
छिपने की कोशिश कर रहे हैं,
अब तो रहम करो मुझपर,
मेरे पिता बादल से,
मिलने का रास्ता साफ करों।
•वो कनकनी के धुन्ध !
हम-सब उसे देखकर जिते हैं।
हम -उससे इन्द्रधनुष बरसायेंगे।
हम -उससे फूल बरसायेंगे।
हम किसी चिज को नहीं जानते,
नमी के साथ उस बादल ने,
हम सबको आगे बढाया है।
लिए हाथ में हाथ हवा का,
हम सबका मन बहलाता है।
•वो कनकनी के धुन्ध !
हम है अधजनमे गेहूं के बच्चे,
अब मुझे इतना ना सताओ,
हम सबका एक-एक कतरा,
तुम्हारे ठण्ड के प्रकोप से जम जायेगा।
फिर हम अपने पिता से,
कभी नहीं मिल पायेंगे।
मेरा रास्ता साफ़ करो……
@रमेश कुमार सिंह /११-१२-२०१५वो कनकनी के धुन्ध !
मेरा रास्ता साफ करों
हम नये-नये गेहूं के नव अंकुर,
बच्चे के समान,
तुमसे गुहार लगा रहे हैं,
•वो कनकनी के धुन्ध !
तुम्हारे अन्दर जो शीतलता समाई है,
उसके ठण्ड के डर से हम,
लुका छिपी खेल रहें हैं ।
आपस में इसी बहाने,
छिपने की कोशिश कर रहे हैं,
अब तो रहम करो मुझपर,
मेरे पिता बादल से,
मिलने का रास्ता साफ करों।
•वो कनकनी के धुन्ध !
हम-सब उसे देखकर जिते हैं।
हम -उससे इन्द्रधनुष बरसायेंगे।
हम -उससे फूल बरसायेंगे।
हम किसी चिज को नहीं जानते,
नमी के साथ उस बादल ने,
हम सबको आगे बढाया है।
लिए हाथ में हाथ हवा का,
हम सबका मन बहलाता है।
•वो कनकनी के धुन्ध !
हम है अधजनमे गेहूं के बच्चे,
अब मुझे इतना ना सताओ,
हम सबका एक-एक कतरा,
तुम्हारे ठण्ड के प्रकोप से जम जायेगा।
फिर हम अपने पिता से,
कभी नहीं मिल पायेंगे।
मेरा रास्ता साफ़ करो……
@रमेश कुमार सिंह /११-१२-२०१५
प्रिय रमेश भाई जी, प्रकृति की लुका-छिपी का अद्भुत चित्रण मनोहारी लगा.
प्रिय रमेश भाई जी, प्रकृति की लुका-छिपी का अद्भुत चित्रण मनोहारी लगा.
वाह वाह , कविता बहुत अच्छी लगी ,लगा मैं भी अपने खेतों के पीले पीले सरसों के खेतों में मस्ती करता करता गन्ने के खेतों की तरफ जा रहा हूँ
आभार आदरणीय!!
आभार आदरणीय!!
सुंदर कविता। सर्दी की गुनगुनी धूप सी कविता।
आभार आदरणीया!!