कविता
छोड़ आई थी तुम्हे
तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
क्यों आये तुम इधर
फिर से मचाने एक हलचल
क्यों झांक रहे हो दिल में मेरे
क्या फिर से खेलना है तुम्हे
ये दिल मेरा,मेरा दिल है ये
जीना सीख चुका है ये
दरवाजे हैं बन्द इसके
नही रखा कोई झरोखा भी
न छूना इसे भूलकर
न देना कोई दस्तक तुम
बन्द हैं कई राज इसमें
कई उम्मीदें दफन हैं
उनको फिर से सांसे
और धड़कन न देना तुम
कोई खिलौना नही ये
पत्थर का टुकड़ा भी नही
अरमानो का पुतला है
एक आस का दीपक भी
फिर से गर लौ लगाओ तो
आंधी में न छोड़ना तुम
अब के जो आना हो जाये
वापसी की न सोचना तुम
— विनय पंवार
अच्छी कविता !