कविता

कविता

छोड़ आई थी तुम्हे
तुम्हारी ख़ुशी की खातिर
क्यों आये तुम इधर
फिर से मचाने एक हलचल
क्यों झांक रहे हो दिल में मेरे
क्या फिर से खेलना है तुम्हे
ये दिल मेरा,मेरा दिल है ये
जीना सीख चुका है ये
दरवाजे हैं बन्द इसके
नही रखा कोई झरोखा भी
न छूना इसे भूलकर
न देना कोई दस्तक तुम
बन्द हैं कई राज इसमें
कई उम्मीदें दफन हैं
उनको फिर से सांसे
और धड़कन न देना तुम
कोई खिलौना नही ये
पत्थर का टुकड़ा भी नही
अरमानो का पुतला है
एक आस का दीपक भी
फिर से गर लौ लगाओ तो
आंधी में न छोड़ना तुम
अब के जो आना हो जाये
वापसी की न सोचना तुम
— विनय पंवार

विनय पंवार

मैं "विनय" एक गृहणी। हिंदी मेरा प्रिय विषय रहा है और साहित्य में अनन्त अभिरुचि भी। प्रशिक्षित अध्यापिका परन्तु पारिवारिक उत्तरदायित्वों के चलते अध्यापन अभिरुचि पर लगा विराम। अब जब बच्चे बड़े हो गए तो समय व्यतीत के लिए कलम को चुना। मन में उमड़ती भावनाओं को शब्दों का रूप देना आरम्भ किया।

One thought on “कविता

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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