कविता : तरंगों में फिरा सिहरा
तरंगों में फिरा सिहरा, तैरता जो रहा विहरा;
विश्व में पैठ कर गहरा, पार आ देता वह पहरा !
परस्पर राग रंगों में, रगों में रक्त दे जाता;
मनों में मुक्ति भर जाता, भुक्त कर तृप्त कर जाता !
कभी निर्गुण में गुण भरता, सगुण बन कभी नच जाता;
किए चैतन्य सब सत्ता, वही मूर्द्धन्य सुर देता !
ध्यान करवा वही जाता, ज्ञान वह ही तो दे जाता;
कर्म अनुरक्त कर तकता, धर्म धारण करा जाता !
द्वैत के द्वार ढक जाता, दिखा अद्वैत फुर जाता;
‘मधु’ की मन मही महरा, वही आकाश चित फहरा !
— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा