ट्यूबवैल अब ठीक ठाक चल रहा था और खेतों के काम से फुर्सत मिल गई थी। अब बड़े भाई अजीत सिंह अपने दोस्तों और भाबी के रिश्तेदारों को मिलने जाने लगे थे । बड़े भाई के अफ्रीका के कुछ दोस्त और कुछ रिश्तेदार थे जिन को मिलने वोह रोज़ जाते थे । इधर हम भी अपने बच्चों को शहर ले जाने लगे। उस समय हमारे गाँव से शहर को कोई बस अभी जाती नहीं थी ,सिर्फ ताँगे ही चलते थे। घर के सामने ही सड़क थी , इसलिए घर के बाहर निकल कर तांगे की इंतज़ार करने लगे। जब तांगा आया तो वोह भरा हुआ था। हम देख कर पीछे मुड़ने लगे तो तांगे वाला बोला ,” आ जाओ जी ,जगह की फ़िक्र ना करो ,जगह बहुत है “. फिर उस ने कुछ मुसाफरों को पीछे जाने को बोला और वोह दूसरे मुसाफरों में ही घुस गए ,दो लड़के पीछे दाईं और बाईं तरफ पायदान पर ही खड़े हो गए और हमारे लिए जगह बना दी। हम बच्चों के साथ आगे तांगे वाले के पास बैठ गए.जब तांगा चला तो बच्चे कुछ घबरा से गए लेकिन मैंने उन को समझा दिया कि फ़िक्र करने की जरुरत नहीं है।
बच्चे इस लिए भी डर रहे थे कि सड़क में जगह जगह खड्डे थे। तांगा कभी एक तरफ जाता तो कभी दूसरी तरफ। दुसरी बात यह थी कि घोड़ी अपनी पीठ से मखीआं उड़ाने के लिए पूँछ को हिलाती तो पूँछ पिंकी को छू लेती और वोह घबरा जाती ,मैं हंस पड़ता ,जिस से पिंकी का हौसला बढ़ गिया और वोह तांगे की सवारी का मज़ा लेने लगी। सड़क के दोनों ओर गेंहूँ और चारे के खेत थे और दूर दूर तक हरयाली ही हरयाली दिखाई देती थी। पहले कैल (गाँव के कुछ ही दूर एक छोटी सी नदी जिस का मैं पहले कई दफा ज़िकर कर भी चुक्का हूँ ) आई ,उस के पुल को पार करने के बाद एक मील की दूरी पर ही बार्न गाँव आ गिया। पुरानी यादों में खोया हुआ मैं उन दिनों को याद कर रहा था कि वोह ही घर आ गिया यहां पपीते के छोटे छोटे बृक्ष हुआ करते थे जिन को अक्सर अरिंड खरबूजे भी कह देते थे । अब यहां कुछ बदला बदला सा लग रहा था।
इस सड़क के एक एक गज़ की कहानी मुझे याद थी ,इस जगह किया हुआ था ,उस जगह किया हुआ था ,याद करता करता तांगे के सफर का मज़ा ले रहा था। कुछ देर बाद जब प्लाही गाँव आया तो मिन्दर सिंह की साइकल रिपेअर की दूकान अभी भी वहां थी लेकिन मिन्दर सिंह मुझे दिखाई नहीं दिया। एक दिन कालज से आते वक्त जब बहुत जोर की बारश हुई थी तो इसी मिन्दर सिंह की दुकान में हम ने शरण ली थी और उसी वक्त जोर से बिजली कड़की थी और कुछ देर बाद ही दो लड़किआं रोती रोती आ रही थीं कि बिजली से उन के दो भाई भगवान को पियारे हो गए थे। इसी दूकान पर अक्सर दो लड़किआं जो कहीं टीचर लगी हुई थीं आ जातीं और किसी को टायर में हवा भरने के लिए कहतीं। दूकान से आगे गए तो काफी कुछ बदल गिया था। पहले हमें नहर के साथ साथ हुशिआर पुर रोड को जाना पड़ता था लेकिन अब सीधी सड़क फगवाड़े को जाती थी . कुछ मिनटों बाद ही हम फगवाड़ा शहर पहुँच गए और तांगा पैराडाइज़ सिनीमे के आगे आ कर खड़ा हो गिया। (अब तो पैराडाइज़ सिनीमे की जगह बड़े बड़े दफ्तर और दुकानें हैं ). मैंने कैमरा निकाला और तांगे के ऊपर बैठे बच्चों की फोटो ली ,तांगे वाला भी घोड़ी के साथ ही खड़ा था।
इस के बाद हम शहर में घूमने लगे। पिंकी कुछ बड़ी होने के कारण बहुत कुछ समझ रही थी ,मैं उस को अपने सकूल के दिनों के बारे में बता रहा था .नाथ की सोडा वाटर की दूकान पर मैं बच्चों को ले गिया .भीतर जा कर सोडा वाटर का ऑर्डर दे दिया .नाथ अभी भी तगड़ा था शाएद इस लिए कि वोह जवानी के दिनों में कुश्ती किया करता था .नाथ बचों से बातें करने लगा ,” यू वांट कॉर्न फ्लेक्स ,यू वांट चौकलेट ?” बचों ने तो कान खड़े कर लिए .मैंने एक डिब्बा कॉर्नफ्लेक्स का लिया और कुछ कैडबरी डेअरी मिल्क चौकलेट लिए .दोनों बेटीआं तो खुश हो गईं। बाहर आये और बाँसाँ वाले बाजार में घूमने लगे। नाथ की दूकान के साथ ही चमन लाल की किताबों की दूकान होती थी जो शायद अभी भी होगी लेकिन मुझे पता नहीं ,उस से कुछ किताबें लीं। इस के कुछ दूर ही सड़क के दुसरी ओर हेमराज की हलवाई की दूकान होती थी जिस में अब कोई और था क्योंकि हेमराज तो इंगलैंड में ही हलवाई का काम कर रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था कि अब भी मैं इंडिया में ही रह रहा हूँ। सारा दिन हम फगवाढ़े में घुमते रहे। बच्चे बहुत खुश थे क्योंकि इतनी खुली जगह बच्चों ने पहली दफा देखि थी और आज़ादी महसूस कर रहे थे। शहर में बहुत से दुकानदार तो अभी भी वोही थे ,इस लिए हमें देख कर दूकान से उठ कर बाहर आ जाते और भीतर आने की ज़िद करते ,हम बहाना बना कर कि फिर किसी दिन आएंगे कह कर आगे चले जाते क्योंकि हम को पता था कि हम से खुश हो कर बोलने का उन का मकसद तो कुछ न कुछ हम को बेचना ही होता था। किसी बड़े रैस्टोरैंट में खाना खाने की वजाए हम ने खराएती के ढाबे पर ही खाना ठीक समझ क्योंकि यहां का वातावरण घर जैसा ही होता था। खाना खा कर हम फिर पैराडाइज़ सिनीमे के नज़दीक पहुँच गए और जाते ही एक तांगा पहले ही खड़ा था। हम जा कर उस में बैठ गए। जब तांगा स्वारिओं से भर गिया तो हम राणी पुर की ओर चलने लगे।
एक दो दिन राणी पुर बिताने के बाद हम कुलवंत की बहन को मिलने चल पड़े। कुलवंत की बहन का घर फगवाड़े से दो किलोमीटर की दूरी पर नंगल खेड़े गाँव में ही था। हम ने घर के सामने से तांगा लिया और फगवाड़े की ओर चल पड़े। अब बच्चों को कोई फरक महसूस नहीं हो रहा था और वोह तांगे की सवारी का मज़ा ले रहे थे। हिचकोले खाता हुआ तांगा जा रहा था और मैं भी स्वारिओं से बातों का मज़ा ले रहा था। कई लोग तो सीधा ही सवाल कर देते ,” गुरमेल सिंह ! इंगलैंड में कितने रूपए मिल जाते हैं ,वहां सड़कें कैसी हैं ,शीशे की हैं ?ठंड कितनी है “. मैं भी उन को इस ढंग से जवाब दे देता कि इंगलैंड और इंडिया का कोई ख़ास फरक नहीं था । बातें करने में तो मुझे भी बहुत मज़ा आता था। आज तो ट्रांसपोर्ट बहुत फास्ट हो गई है लेकिन मुझे तांगे की सवारी करना बहुत पसंद हुआ करता था क्योंकि यह धीरे धीरे चलता था और गाँव के लोगों से घुल मिल जाना मुझे बहुत अच्छा लगता था। जब दुसरी दफा मैं 1981 में बेटे संदीप को ले कर गाँव आया था तो उस वक्त टैंपू बहुत चल पड़े थे और तांगे एक दो ही थे लेकिन मैं टैंपू को छोड़ कर तांगे में ही बैठना पसंद करता था। ताँगा धीरे धीरे चलता था और लोगों से बातों का मज़ा ज़्यादा आता था और ख़ास कर तांगे वाले की एक एक बात को धियान से सुनता था जो वोह घोड़े या घोड़ी को मुख़ातब करके बोलता था।
हम पैराडाइज़ सिनीमे के नज़दीक पहुँच गए थे। उस वक्त कोई बस नंगल खेड़े को नहीं जाती थी ,सिर्फ रिक्शे ही जाते थे। एक कमज़ोर सा रिक्शे वाला हमारी तरफ आया ,” साहब रिक्शा चाहिए ?” . ” नंगल खेड़े जाएगा ?” ,मैंने पुछा। उस ने हमें रिक्शे में बैठने को बोला। हम सभी बैठ गए और रिक्शे वाला धीरे धीरे चलने लगा। तीन बच्चे हमारे साथ थे और रिक्शे वाले का बहुत जोर लग रहा था। यों तो हम इंडिया से ही बाहर गए थे लेकिन पता नहीं क्यों जब भी भारती अपने देश में आते हैं तो उन में अपने गरीब लोगों के प्रति दया भावना बहुत बढ़ जाती है , और गरीबों की तरफ देख कर उन की हालत पे दुःख होता है। मैं रिक्शे वाले की टांगों को देख रहा था ,जब वोह जोर लगाता था। रिक्शे वाला यू पी से आया हुआ था जो उस की बोल चाल से ही परतीत होता था। मुझे याद नहीं किया किया बातें उन से मैंने की लेकिन वोह खुश खुश दिखाई दे रहा था। जीटी रोड पर जाते जाते जब हम नंगल खेड़े की सड़क पर चलने लगे तो सड़क बहुत रफ थी,जगह जगह टूटी हुई थी और आगे रेलवे फाटक था जो कुछ ऊंचाई पर था। अब उस से रिक्शा चलाया नहीं जाता था और वोह नीचे उत्तर कर जोर जोर से चढ़ाई चढ़ने लगा तो मैंने उस को खड़ा होने को बोला और हम सभी नीचे उत्तर गए। वोह ज़िद कर रहा था कि हम बैठे रहें लेकिन मेरी ज़मीर इजाजत नहीं दे रही थी। रेलवे लाइन पार करके हम फिर बैठ गए। अब सड़क अच्छी थी और रिक्शा चलने लगा और दस मिनट में ही हम नंगल खेड़े कुलवंत की बहन के घर के दरवाज़े पर खड़े थे। कुलवंत की बहन कुलदीप जिस को हम दीपो कहते हैं ने दरवाज़ा खोला। रिक्शेवाले को जितने पैसे उस ने बोले कुलवंत ने उस से कुछ ज़्यादा ही दे दिए और मठाई के दो डिब्बे जो हम ने आते वकत शहर से खरीदे थे ,उन में से एक डिब्बे से दो रसगुल्ले निकाल कर कुलवंत ने रिक्शेवाले को दे दिए और उस को चार वजे के करीब आने को कह दिया।
कुलवंत और दीपो गले लग कर मिलीं और मैंने भी सत सिरी अकाल बोला और दीपो के पति हरी सिंह से हाथ मिलाया। दीपो का घर बहुत पुराना है और अब भी वही है और यह मकान एक तंग सी गली में है.घर का बाहर का दरवाज़ा भी बहुत पुराने ढंग और भारी लकड़ी का बना हुआ है. हँसते बातें करते बच्चों के साथ हम अंदर आ गए। दीपो ने एक एक बच्चे को सीने से लगाया और हरी सिंह ने संदीप को उठा लिया और उन से पियार करने लगा। बच्चों को यह वातावरण बहुत अच्छा लगा और खुश हो गए। दीपो कुलवंत से दस साल बड़ी है लेकिन भगवान ने उन को कोई बच्चा नहीं दिया ( हरी सिंह दस साल पहले हार्ट अटैक से इस दुनीआं को अलविदा कह गिया था और दीपो अब अकेली ही घर में रहती है ). दीपो का घर बहुत पुराना छोटा सा लेकिन सफाई इतनी कि इस पुरानेपन में भी एक अजीब सी कशिश है। छोटा सा आँगन जिस में दीवार के साथ कुछ फूलों के गमले ,एक तरफ रसोई घर ,एक तरफ पानी के लिए नल और गुसलखाना ,इसी आँगन से ऊपर को जाती हुई पक्की सीढ़ी है। हम ड्राइंग रूम जिस को वोह बैठक बोलते हैं में आ गए। इस बैठक में कुछ कुर्सियां और एक मेज था ,एक तरफ एक शैल्फ बनी हुई थी जिस पर दीपो ने अपने हाथों से बनाया एक कपडा बिछाया हुआ था जिस पर तरह तरह के रंगों के वेल बूटे बने हुए थे जो शायद दीपो ने अपने हाथों से बनाये होंगे। इस शैल्फ पर एक लकड़ी के फ्रेम का इलैक्ट्रिक रेडिओ रखा हुआ था और कुछ हमारी और हमारे बच्चों की फोटो रखी हुई थीं जो हम ने कुछ अरसा पहले ही भेजी थीं। बच्चे अपनी फोटो देख कर हैरान और खुश हो रहे थे।
बैठ कर हम बातें करने लगे और हरी सिंह मेरे पिता जी के बारे में बातें करने लगा। कुछ देर बाद कुलवंत और दीपो रसोई घर में चले गईं और चाय पानी का इंतज़ाम करने लगीं ,बच्चे भी बाहर आ कर आँगन में खेलने लगे और नल के हैंडल को दबा दबा कर पानी से खेलने लगे. कुछ ही देर में चाय आ गई जिस के साथ खाने को दीपो ने बहुत कुछ बनाया हुआ था। दीपो सभी बहनों से गरीब है लेकिन उस का दिल इतना बड़ा है कि हर कोई उस से मिलने को चाहता है। कोई भी उस के घर जाता है उस को अपना बना लेती है. तब हमारी बेटी रीटा चार साल की ही थी लेकिन आज वोह 46 वर्ष की है और चार पांच साल पहले जब वोह इंडिया गई थी तो दीपो मासी को मिल के इतनी खुश हुई थी कि यहां वापस आ कर हमें बताती थी कि सब से ज़्यादा मज़ा उसे दीपो मासी को मिल कर आया था और उस का दिल चाहता था कि वोह कुछ दिन दीपो मासी के पास रहे लेकिन वोह अपने सास ससुर के साथ गई थी। बाद में दीपो ने हमें टेलीफून पे बताया था कि जाते वक्त रीटा रो रही थी। चाय पी कर हम ऊपर छत पर चढ़ गए क्योंकि ऊपर मज़ेदार धुप थी। हरी सिंह संदीप को लिए बैठा था ,बेटीआं ऊपर इधर उधर दौड़ रही थीं ,मैं कैमरा ले आया और बच्चों की कुछ फोटो खींची। कुछ देर बाद कुलवंत और दीपो दुपहर का खाना बनाने लगीं।
जब खाना बन गिया तो बैठक में कुर्सिओं पर सब विराजमान हो गए। खाना बहुत बड़ीआ बना था। खाते खाते हम बातें भी कर रहे थे। खाना खा कर हम फिर ऊपर छत पर आ गए और बातें करने लगे। सही वक्त पर रिक्शे वाला भी आ गिया और हम वापस जाने की तैयारी करने लगे क्योंकि अंघेरा होते ही फगवाड़े से राणी पुर को तांगे जाने बंद हो जाते थे। रिक्शे में बैठ कर हम जाने लगे तो दीपो और हरी सिंह रिक्शे के साथ साथ चलने लगे। गाँव के बाहर जब हम सड़क पर आये तो दोनों बहने गले लग कर मिलीं। दीपो ने बच्चों को पियार दिया। हरी सिंह ने मेरे साथ हाथ मिलाया और हम राणी पुर को चल पड़े।
चलता . . .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की क़िस्त पढ़कर आपके जीवन के कुछ सुखद क्षणों को जानने का अवसर मिला। आपने टाँगे का रोचक वर्णन किया है। मुझे भी टाँगे में अनेक बार बैठने का अवसर मिला है। कुछ साल पहले तक देहरादून में टाँगे चलते थे। अब नदारद हो गए है। दलीप कुमार की एक फिल्म “नया दौर” टाँगे पर ही आधारित थी जो कई बार देखी थी। आज भी यूट्यूब में हो सकती है। दीपो बहिन जी के बारे में आपने जो लिखा है, वह पढ़कर अच्छा लगा। निर्धन रिश्तेदारों से हमें प्यार व सम्मान अधिक मिलता है। ऐसा मुझे लगता है व अनुभव भी किया है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद। सादर।
मनमोहन भाई , धन्यवाद .नया दौर हम दोस्तों ने मैट्रिक के एग्जाम के दिनों में देखि थी ,शाएद १९५८ के नज़दीक .दलीप कुमार विजय्न्ती और जीवन का में रोल था .मुझे इस फिल्म का एक सीन याद है ,जब दलीप कुमार विजंती माला और ग्रामीण लोग सड़क बनाते हैं और गाना गाते हैं ,साथी हाथ बढाना ,एक अकेला थक जाएगा ,मिल कर बोझ उठाना ,बस यह सीन और जब जीवन के तांगे के साथ रेस होती है ,वोह सीन ही याद हैं .इस फिल्म को देखने के लिए हम दोस्तों ने टॉस पाई थी .मुझे तांगा इस लिए पासन्द था कि लोगों से खुल कर बातें होती थी किओंकि सभी पास पास बैठे होते थे और सभी एक दुसरे को जानते होते थे .
दीपो के बारे में बात यह है कि वोह सभी बहनों से इलग्ग ही है ,कभी कभी हम उस के लिए कोई गिफ्ट भेजते हैं तो सभी आ कर बताते हैं कि उस की आदत बहुत अच्छी है .शाएद यह सुभाव शुरू से ही है .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने नया दौर पिक्चर के जिन दृश्यों की चर्चा की है, मुझे वह सभी याद हैं। यह फिल्म मैंने दो तीन बार देखी थी। दलीप कुमार, जीवन के साथ इस फिल्म में शायद अजीत भी था। टाँगे और कार की रेस का दृश्य भी याद है। बचपन में हम परिवार के सभी सदस्यों पिताजी, माताजी, बड़ी बहिन, मैं वा दो छोटी बहने ५ किलोमीटर दूर एक मंदिर में टाँगे में बैठ कर पूजा व प्रसाद चढाने गए थे। मैं चार या पांच साल का था परन्तु यह दृश्य मुझे याद है और यदा कदा याद आता रहता है। जब कभी मैं उस रास्ते से निकलता हूँ तो मंदिर भी चला जाता हूँ और उन यादो को ताजा कर लेता हूँ। दीपो बहिन जी का स्वभाव जन्मजात भी हो सकता है। एक ही परिवार में भाई व बहिनों का भिन्न भिन्न स्वभाव भी जीवात्मा के पुनर्जन्म को सिद्ध करता है। विद्वान कहतें हैं कि यदि पुनर्जन्म न होता तो सब भाईयो व बहिनों का स्वभाव एवं बुद्धि की क्षमता एक समान होनी चाहिए थी। आपका उत्तर बहुत अच्छा लगा। हार्दिक धन्यवाद। सादर।
प्रिय गुरमैल भाई जी, ई.बुक सेक्शन में आपकी तीन ई.बुक्स छप गई हैं, मुबारक हो.
लीला बहन, आप का बहुत बहुत धन्यवाद है ,यह सब आप की हौसलाफजाई से ही संभव हो सका है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, इस समय तो हम भी विदेश में हैं, पर इस एपीसोड के ज़रिए हम पुराने ज़माने के भारत में पहुंच गए. सचमुच तांगे की सवारी के आनंद का कोई मुकाबला नहीं. अद्भुत और रोचक एपीसोड के लिए आभार.
लीला बहन, सचमुच तांगे की सवारी का अपना ही एक मज़ा होता था .बस्सों रेलों में इतना सफ़र किया लेकिन उस तांगे में बैठ कर लोगों से बातें करने में मज़ा था ,वोह अधभुत था .बहुत लोग जो कभी तांगे में मिले और उन से बातें की वोह अभी तक याद हैं और उन के चेहरे भी मेरी आँखों के सामने हैं .