कविता

कविता : प्रेम

प्रेम कोई रूप नहीं ,जिसको हम देख सके
प्रेम कोई शब्द नहीं ,जिसको हम छु सके
प्रेम कोई गहराई ,जिसको हम नाप सके
प्रेम कोई तलपट नहीं ,जिसको हम नाप सके
..
प्रेम मन की एक
सुन्दर सलोनी आहट है
जिसे छु लो तो मन को
होती गुदगुदाहट है ..
..
सुख-दुःख का जीवन में आना
एक रंगीला खेल है
प्रेम से भाव पार उतरना
यही जीवन का मेल है
.
प्रेम में ना स्वार्थ हो , ना लेन-देन का चक्कर हो..
बस हंसी का राग हो ,सुख दुःख में देते साथ हो
.
मिल बाँट चले अपने जीवन की
कुछ घड़ियाँ यूँ साथ-साथ
क्या रिश्ता बन जाता है
ज्यों सागर की लहरे हो
सागर के पास-पास

— स्वाति(सरू) जैसलमेरिया

स्वाति जैसलमेरिया

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4 thoughts on “कविता : प्रेम

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन कविता !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    प्रेम में ना स्वार्थ हो , ना लेन-देन का चक्कर हो..

    बस हंसी का राग हो ,सुख दुःख में देते साथ हो वाह वाह .

  • लीला तिवानी

    प्रिय सखी नीरजा जी, प्रेम का सुंदर-सरस रूप अति मोहक लगा.

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