कहानी

समुद्र की रेत

गायत्री ने साडी के आंचल से हाथ पोंछते हुए किचन की लाइट बंद की और किचन से बाहर आ गई। देखा तो बरामदे की लाइट जल रही थी। बरामदे की लाइट बुझाने गई तो देखा दरवाजा अंदर से बंद नहीं था। उसने झांककर बाहर देखा, मणि बरामदे में बैठे थे।

“अय्यो आप सोया नहीं, इतना रात को इधर अकेले बैठा क्या कर रहा जी, मैं तो बिल्कुल डर गया………..अभी तो एक दिन आफिस है न।“

“कुछ तो नहीं  …. आओ तुम भी थोड़ा देर बैठो”

गायत्री समझ गई कि परेशान हैं। चुपचाप जाकर मणि के बगल में बैठ गई।

“इतना परेशान क्यों होता है जी? कल तो कैसा भी करके आपको छोड़ देगा फिर आपका बास का आपको मुंह देखने का नहीं है और उधर किसी भी आदमी का नहीं देखना है।”

“क्या बोलने का है गायत्री। हम तो कभी किसी को कुच नहीं बोलता कभी किसी से झगडा नहीं करता फिर भी सब हमारा ही मज़ाक उड़ाता है। अभी ऑफिस में एक नया लड़का आया है। ये आजकल का लड़का लोग हमारा जैसा नहीं है। कोई रिस्पेक्ट नहीं है। बहुत हंसता-बोलता है। त्यागी के आस-पास ही रहता है, मेरा मजाक उडाता होगा। त्यागी तो आठ साल मेरा हिन्दी का मजाक बनाया। परमिला मैडम मेरे को खाना खाते ऐसा देखती जैसे हम खाना नहीं खा रहा…कतल कर रहा है किसी का। आठ साल गायत्री….. बहुत लंबा समय है दिल्ली में रहने के वास्ते। आठ साल ये दफ्तर में काम किया….कोई अच्छा नहीं बोला…..हमारा ईमानदारी सबकी आंख में लगता……अब एक दिन भी ज्यादा दिल्ली में नहीं रुकेगा।“

सुब्रमणियन का श्यामल चेहरा क्रोधाग्नि में तपकर और श्याम वर्ण हुआ जा रहा था। गायत्री ने उनके चढ़ते हुए रक्तचाप को भांप लिया और उनके हाथ को थाम कर के बोली

“फिर कहां जाऐगा हम सब अब?”

सुब्रमणियन ने थोड़ा वक्त लिया अपने खौलते खून को ठंडा करने के लिए। फिर जैसे उनके चेहरे पर रौनक दौड़ने लगी।

“मंगलौर!”

गायत्री ने देखा कि उसकी युक्ति काम कर गई है। गायत्री ऐसी ही युक्ति से स्वामी को भी उत्साहित करती थी। जब वह देखती थी कि इम्तहान सिर पर है और स्वामी का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा तब वह उसे छुट्टियों के आनंद का प्रलोभन देती और कहती कि छुट्टियों का आनंद लेना है तो पहले इम्तहान की अच्छी तैयारी करनी होगी। स्वामी इस प्रलोभन में आकर सानंद पढाई में जुट जाता। बेटे पर आजमाए जाने वाले इस नुस्खे को वो पति पर भी चलाती थी। विद्यमान कठिनाईयों से उनका ध्यान हटाकर उससे होने वाले लाभ की ओर आकृष्ट करने की कला में वो पारंगत थी और अगर वह ऐसी न होती तो शायद सुब्रमण्यिन बहुत पहले टूट चुके होते।

तमिल शैव ब्राह्मण होकर तेलुगु वैष्णवी पत्नी लाए थे। समाज से तो कट ही गए। माता-पिता को कोई आपत्ति न होते हुए भी समाज के नियमों में बंधना पड़ा। शुरू में तो गल्ली मुहल्ले में निकलना मुश्किल हो गया था। ऐसे में नौकरी सुब्रमणियन के लिए वरदान की तरह आई। उस पर भी घर में कुहराम मच गया था। पहले तो माता-पिता और भैया-भाभी उन्हें भेजने के लिए राजी न हुए। माता ने तो खूब समझाया कि घर-बार है, खेत हैं उन्हें देखे, ज़मीन-ज़ायदाद से दूर कहां जाएगा। भाभी ने देखा कि अबतक तो सब जगह उनका राज-पाट बेखटक चल रहा था अब अगर मणि घर बैठ गए तो उनके सारे मनसूबे स्वाहा हो जाऐंगें। धीरे-धीरे सुब्रमणियन की खुशी को माता-पिता ने स्वीकार कर लिया और भैया-भाभी ने भी। सुब्रमणियन सपत्नीक नौकरी में लग गए। अक्सर माता-पिता से मिलने जाया करते थे लेकिन कुछ समय बाद माता नहीं रही और फिर पिता भी। इसके बाद वे कभी गांव नहीं गए वहां उनके लिए कोई आकर्षण नहीं बचा था।

जबतक गायत्री पुरानी बातें याद कर रही थी सुब्रमणियन भावी जीवन के सपने देख रहे थे।

“गायत्री पता है, मंगलोर में मुझे बहुत अच्छा लगता…..अच्छे-अच्छे लोग रहते ….अच्छा-अच्छा कपडा पहनते……शहर होकर भी गांव का जैसा गली है सब उधर…..वहां का समंदर में मेरा दिल डूबा रहता है….लहरों के साथ गोते खाता है…….वहां सुंदर-सुंदर मंदिर होता…..लोग खूब पूजा करता…. हम भी उधर ही जाएगा…….और फिर हमारा स्वामी भी तो मंगला देवी का आशिर्वाद है………हमारा पोस्टिंग मंगलौर नहीं होता तो शायद हम दोनो बिना बच्चा के बुड्डा होके मर जाता……..मंगला देवी एक बार फिर हमको बुला रही है गायत्री…..हम उधर ही जाएंगे। ”

“स्वामी का पढ़ाई का क्या होगा जी?”

जैसे मंगलौर के समुद्र की तेज लहर ने आकर सुब्रमण्यम के मुंह पर थपेड़े दिए हों, सुब्रमण्यम झुंझलाते हुए बोले-

”ओफ्फो गायत्री। उधर का बच्चा लोग क्या पढाई नहीं करता होगा क्या? चलो अभी सोने चलो। अभी एक दिन और बास के गाली का कोटा बाकी है। वो सबकुछ करे मगर मेरा रीलिविंग का और पेंशन का कोई पेपर न अटकाऐ स्वामी।“

******

““क्यों सुबे-सूबे नंदी के जैसा बीच रास्ते में खड़ा हो जाता है, जब देखो बाहर देखता रहता है और अवसर पाकर बाहर भाग जाता है”।“

मणि अभी घर से निकले ही रहे थे। दरवाजे पर स्वामी को खड़ा देख बिफर पड़े। फिर थोड़ा नम्र होकर बोले।

“स्कूल का छूटी हुआ है, स्कूल खतम नहीं हुआ, अभी लाइफ में तुमको बहुत कुछ करने का है स्वामी, अभी से पढ़ाई से भागेगा तो ऐसा कैसा चलेगा स्वामी”

“नहीं अप्पा! मैं तो बस राजीव को देख रहा था। वो आज आनेवाला था। हम साथ में होलीडे होमवर्क करने वाले थे।”

मणि ने पत्नी को आवाज लगाई- “गायत्री! मैं जा रहा है, मुझे लेट जाना अच्छा नहीं लगता मेरा टिफ़िन देओ”

“ये लो जी! आज भी देर होगा क्या?”

“हाँ आज तो बहुत देर होगा।”

“क्यों जी आज भी आपका बास आपको नहीं छोड़ेगा क्या जल्दी”

“नहीं गायत्री! ऐसा नहीं। आज एक बड़ा पार्टी रखें है सब लोग मिलके… ऑफिस की तरफ से… इसलिए आज लेट तो होना। खैर आज वो कुत्ता लास्ट टाइम भोकेंगा।”

“ऐइसा मत बोलो जी…..स्वामी गलत सीखेगा।”

“ओह”

और स्वामी अपना एक कान खींचते हुए घर से बाहर निकल गए।

*******

मणि के दिल्ली में आठ साल पूरे हो चुके थे और तबादला मांगने पर भी नहीं हुआ, हाँ नौकरी जरूर पूरी हो गई। मणि को गर्व है कि आज भी वे समय से पहले पहुंचे हैं। ऑफिस के माहौल से मणि कोई बहुत खुश नहीं थे परंतु आज मन रूंआसा सा हो गया था। पिछले कई दिनों से और आज कुछ ज्यादा ही भारी मन के साथ सुब्रमणियन ने दफ्तर में कदम रखा। अपने टेबुल को देख भावुक हो रहे थे आज तो सुबह से ही उनके दिल की धड़कनें बढ़ी हुईं थीं। दफ्तरी ने पूछा “क्यूँ सर! आज लास्ट डे ना।”

वैसे तो मणि को खुश होना चाहिए था कि दफ्तरी तक को याद है कि आज वे सेवानिवृत हो रहे हैं। परंतु मणि को यह कोई तीखा व्यंग लगा। जैसे वो कह रहा हो कि “क्यूँ सर। बहुत मजे लिए मुझे रोज-रोज लैक्चर दे देकर अब घर बैठो और मेरा पीछा छोड़ो।” जबरन मुसकुराते हुए मणि बोले “हाँ पुट्टू।”

मणि के चेहरे को देख वो भी भावुक हो उठा। बोला “अब मुझे पुट्टू कहके कौन बुलाएगा”। इस एक लाइन ने मणि को मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया मणि ने सोचा और कोई हो न हो यह मुझे जरूर मेरे जाने के बाद भी याद करेगा, हंसी-मजाक तो बच्चों के स्वभाव में ही होता है।

अगर इसी वक्त सेठी साहब के कमरे में घंटी न बजती तो शायद मणि रो भी पड़ते।

“अरे आज सेठी साहब इतना जल्दी आया …”

“हाँ आध घंटे पहले ही आकर बैठे हैं और कई बार आपको पूछ चुके हैं, मैं जाता हूँ इससे पहले कि वो बाहर आएँ”

मणि ने घबराकर जाते हुए दफ्तरी को देखा और फिर अपने टेबुल पर लगे अयप्पा भगवान की तस्वीर को देख के प्रार्थना की “आज अछे से रीलिव करा दे स्वामी, मंदिर का पाँच चक्कर मैं एक्सट्रा लगाएगा”।

दफ्तरी जितनी तेज़ी से गया था उतनी ही तेजी से मणि के पास वापस आया।

“साहब अंदर बुला रहें है।”

“खराब मूड है क्या?”

“हां सुबह-सुबह आ गए……देखो आज तो आपसे भी बहुत पहले के आए हुए हैं….. दस बार आपको पूछ चुके हैं।”

“ओहो….मैं अभी जाता।”

मणि ने पांच बार फिर अयप्पा की तस्वीर को प्रणाम किया और तेजी से केबिन की ओर बढ़ गए।

“आओ सुब्रमणियम!”

सुब्रमणियन मन ही मन खीझ के बोले “सुबमणियन …सुब्रमणियन……हजार बार बताया सुब्रमणियन”  और हाथ बांध के टेबल के आगे खडे हो गए।

“जी सर”

“हूं…. लास्ट डे….हूं…..बोलो क्या गिफ्ट दें?”

सुब्रमणियन कहना चाहते थे “क्या शंकर जी के नाग तरह हूं..हूं करके फुंकारता रहता है….गिफ्ट भी पूछ के देता है कोई क्या? धूर्तम…दुष्टम।”

मणि की दुविधा देख सेठी साहब बोले – “ मैं तो इसलिए पूछ रहा था कि तुम्हें तुम्हारे काम की चीज़ मिले तो अच्छा हो वरना ऐसे गिफ्ट का क्या फायदा जो तुम उठाकर बरजे पर फेंक दो।“

“नहीं सर ऐसा नहीं करेगा मैं….आप जो भी प्यार से देगा उसे मंदिर में मैं सजाएगा।”

“हूं।”

सेठी साहब बिना कुछ बोले हाथ की फाइल में फिर घुस गए। सुब्रमणियन असमंजस्य में पड़े बाहर निकल आए। देखा तो सामने से त्यागी आ रहे थे।

“अरे त्यागी! जल्दी आया तुम।”

सुब्रमणियन को देखते ही त्यागी की बांछे खिल गईं।

“हां मेरे सुब्बु। कम से कम आज तो तू देर से आ ही सकता था। तू क्यों इतनी जल्दी आया।”

सुब्रमणियन ने लगभग चीखते हुए कहा “त्यागी!!! तूम पीया हुआ है।”

“हां मेरे यार….. दिलदार तेरी रिटारयमेंट की खुशी में तो पी ही सकता हूं।”

सुब्रमणियन लगभग भागते हुए बोले “शिवा! शिवा! शिवा! बात मत कर मेरे से तुम।”

त्यागी पीछे से चिल्ला रहा था “आज तो छोड़ दे …जश्न का दिन है।”

अपनी डेस्क पर भुनभुनाते हुए मणि ने कहा “जश्न….मेरा जाने का जश्न … तुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगा …..शांतम पापम! शांतम पापम! …..आफिस में पीता है ……वो भी सूबे-सूबे।”

सुब्रमणियन ने महसूस किया कि उसकी सीट के पीछेवाली सीट पर प्रमिला बैठी। सुब्रमणियन को एहसास हुआ कि धीरे-धीरे दफ्तर भरता जा रहा है। चाय का समय था। प्रमिला अपनी सीट छोड़कर मणि के बगल वाली सीट पर बैठ गई। मणि चौंक कर उठे फिर बैठ गए। इस पर कुछ ध्यान न देते हुए प्रमिला बोली “सुबु मैं तुम्हारे लिए आलू के परांठे लाई हूं।” मणि अभी कहने ही वाले थे कि “उसमें तो बहुत ऑयल होता है जी।” लेकिन ठिठक गए। शुगर और बीपी की परवाह न करते हुए टिफिन ले लिया।

*******

दिन भर की धक-धक तो सुब्रमणियन ने बर्दाश्त कर ली। लेकिन पाँच बजते ही सुब्रमणियन के सीने में चक्रवात उठने लगा। दफ्तरी ने घोषणा की कि सेठी साहब ने सबको केबिन में बुलाया है।

सेठी जी का बड़ा सा केबिन ठसाठस भर गया। सुब्रमणियन को सेठी जी ने अपने बगल में खड़ा कर बोलना शुरु किया।

“हूं…. तो साथियों। जैसा कि आप सब जानते हो, आज हमारे दफ़्तर का एक बहुत ही उम्दा वर्कर रिटायर हो रहा है और हम सब उसे बधाई देने के लिए यहां इकठ्ठे हुए हैं। हूं…. तो मैं कुछ बोलूं उससे पहले चाहूंगा की सब अपनी राय रखें। हूं….फिर मैं। हूं……..तो कौन शुरु करेगा।”

मणि ने सोचा “इतना तो भोंका और कितना भोंकेंगा…आज तो छोड़ दे….कुछ ऐसा-वैसा बोलेगा मेरे बारे में तो हम लज्जा से डूब मरेगा….अय्यो स्वामी शरणम…शरणम।”

त्यागी लगभग कूदते हुए सामने आए – “पहले बोलना तो मेरा ही बनता है। सबसे पुराना साथी जो हूं।”

सेठी जी बोले “हूं …गुड”। मगर मणि के मन में एक चीत्कार उठी “नहीं….. नहीं त्यागी….. तू कुछ मत बोल….तू चुप रह वर्ना …मैं इधर से भाग जाएगा।”

“सुबु मेरे यार! आठ साल….जब तक तू था तेरे साथ दिन कैसे बीता पता ही नहीं चला….इन आठ सालों में एक दिन भी मुझे यह ख्याल नहीं आया की तेरे बगैर भी मुझे कभी ऑफिस में रहना पडेगा। अब तो ऑफिस में एक दिन भी मेरा दिल नहीं लगेगा……।”

मणि सोच रहे थे “यह क्या बोलता त्यागी….मेरा हिन्दी का मज़ाक नही उडाई।”

त्यागी जारी था ”……. घर पर बीवी और दफ्तर में तू ….यही तो मेरा आकर्षण है यार…..।”

मणि की सोच भी जारी थी “…..छी:छी:…ये क्या बोलता है…”

इतना बोलना था कि सब ठहाके मार के हंस पडे। त्यागी फिर भी जारी था बोलते-बोलते वो इतना भावुक हुआ कि उसने मणि को कसके गले से लगा लिया। मणि की तो दो सेकेंड के लिए सांस रुक सी गई। आपने आप को छुडाने की कोशिश की मगर कोशिश बेकार साबित हुई। फिर उसने अपने आप को त्यागी के हवाले कर दिया और अपने आप को यह बुदबुदाते हुए पाया “…..सॉरी यार मैं तुमको बहुत बुरा-भला बोला …।” जिसे शायद त्यागी ने नहीं सुना।

फिर प्रमिला मैडम बोली “सुब्रमण्यन हमारी टीम के बैकबोन रहे हैं। सबसे इंटैलिजेंट और स्मार्ट। इनके रहते मुझे किसी काम की कोई चिंता नहीं होती थी। अब मुझे हर वक्त हर काम के बारे सोचते रहना पड़ेगा। बस सुब्बु एक ही शिकायत है कि तुम दही-चावल चम्मच से खाया करो।”

सभी हंस पड़े। किसी और समय पर तो सुब्रमणियन ने इसे बुरा समझा होता लेकिन इस बार तो उसने भी इसे विनोद में लिया।

एक-एक कर दफ़तर के सभी लोगों ने मणि की तारीफ के पुल बांधें। जिन नए लोगों के अभी नाम भी ठीक से मणि को याद नहीं हुए थे वे भी उसकी तारीफ किए जा रहे थे।

“इनकी ईमानदारी की जितनी तारीफ सुनी थी उससे कहीं बढकर पाया……..”

”सुबु जैसा धर्मात्मा कोई नहीं……” “ऐसे सज्जन पुरुष जन्म नहीं लेते अवतरित होते हैं…….” “इस विभाग की साख इनकी वजह से ही कायम है…….” “ सत्यमं शिवं सुंदरम को सार्थक करते हैं सुबु….”

अब सेठी साहब ने टेबल पर पड़ा बड़ा सा पैकेट मणि को दिया जिसे सबके सामने खोला गया। बालाजी की एक फीट लम्बी मूर्ति निकली। सुब्रमणियन मन ही मन धन्य-धन्य कहने लगे। फिर सेठी साहब ने बोलना शुरु किया “हूं…… सुब्रमण्यम से जब पहली बार मैं मिला था तब सोचा नहीं था की यह क्षीणकाय तमिलियन इतनी दमदार पर्सनेलिटी वाला आदमी निकलेगा। हूं…….. इसका पहला आभास मुझे तब हुआ जब रामलाल के टेंडर पर मैंने जबरदस्ती सुब्रमण्यम को राजी करने की कोशिश की। अपने 28 साल के करियर में मुझे एक भी ऐसा बंदा नहीं मिला था जिसने मेरी हां में हां न मिलाई हो। सुबु मेरे लिए एक झटका साबित हुआ। एक टेढी खीर…..”

मणि ने सोचा “टेढी खीर? ये टेढी खीर बोले तो क्या?”

“…… इसीलिए वो मुझे इतना खास पसंद नहीं था। मैं उसके साथ सख्ती से पेश आता था और सोचता था कि शायद वो टूट जाएगा। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। उल्टे अब मैं जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो सोचता हूं कि अच्छा ही हुआ। जैसा कि धर्मेश दत्त ने कहा कि सुबु की वजह से इस विभाग की साख कायम है। सच ही है……..”

मणि सोच रहे थे “….. अय्यो भगवान हम अपने बास को कितना गलत सोच रहा था …..वो तो हमको अच्छा-अच्छा बोलता….. और हम उसको कुत्ता बोला…..स्वामी मेरा पाप नष्ट करो स्वामी।”

“…..मगर इस सब के बाद मुझे लगा था कि सुब्रमणियम मुझ से कुढता होगा …।”

मणि फिर मन ही मन चिढ़े “ओफ्फो कितना बार बोलेगा….सुब्रमणियम मत बोलो….मैं तेलुगु नहीं तामिल…. सुब्रमणियन  बोलो सुब्रमणियन सुब्रमणियन सुब्रमणियन”

“………और मुझसे नाराज़गी जताएगा। थोड़े देर के लिए वो नाराज़ होता भी था …..मगर थोड़े देर ही के लिए। हूं….. आप सबने कीचड़ देखी होगी जो कपडों पर चिपक जाती है और आसानी से नहीं निकलती, लेकिन समुद्र की रेत कितनों ने देखी होगी…. पता नहीं….. समुद्र की रेत कपडे सूखने के साथ ही झड़ जाती है। सुब्रमणियम का गुस्सा भी वैसा ही हुआ करता था…… समुद्र की रेत की तरह….”

“रेत…. समुद्र की रेत … वाह क्या बढियां बात बोला बास…. “  मणि यह सोचते हुए बाकी सारी बातें न सुन सके। तब तक मणि के बोलने की बारी आ गई।

“मैं क्या बोलेगा अब…..ज्यादा बोला तो मेरा हिन्दी सुन-सुनकर आप सब हंसेगा….”

सभी हंस पडे।

“ …. आप सब आज जो सम्मान मेरे को दिया …..मेरे को लगता है कि रिटायरमेंट पे इतना प्यार मिलता है तो ये प्यार के लिए मैं पहले ही क्यों नही रिटायर हो गया…….”

केबिन फिर ठहाकों से गूंज उठा।

“…..इतना अच्छे लोगों के बीच से अब जाने का मन नहीं होता……दिल्ली छोड़ने को मन नहीं करता …..”

सुब्रमणियन अपनी आंखों को छलछलाने से रोकते हुए खुद भी रुके और रुककर बोले- “….. हमारा बास सबसे अच्छा बास है…….एकदम नारियल के माफिक……केवल ऊपर से सख्त दिखता ……”

इतना ही बोलना था कि तालियों से केबिन गडागडा उठा।

“ ……. मैं बहुत भाग्यवान जो ऐसा अच्छा- अच्छा लोग के साथ काम किया…… वो दत्ता सर एक बात बोलता न……. किस्मत से ज़्यादा और वक्त से ज्यादा……वैसे ही मेरा भी वक्त खत्म हो गया अब और ज्यादा वक्त आप सबके साथ लिखा नहीं मेरा किस्मत में …….बहुत-बहुत धन्यवाद आप सबका….नमस्कार”

सबकी तरफ सुब्रमणयन ने कृतज्ञता से देखा और महसूस किया की उसके अंदर से समुद्र की रेत कहीं झर रही थी। ।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

4 thoughts on “समुद्र की रेत

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार कहानी. अपने एक निश्छल हृदय व्यक्ति की भावनाओं को बहुत खूबसूरती से व्यक्त किया है. आपको साधुवाद !

    • नीतू सिंह

      धन्यवाद सर

    • नीतू सिंह

      शुक्रिया

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