ग़ज़ल
बँटे हैं मुल्क सरहद पर उठी दीवार जाने क्यों
मिटाये से नहीं मिटता दिलों से प्यार जाने क्यों
नहीं औकात सागर की डुबा दे नाव कोई भी
मगर बिकने लगे हैं आज कल पतवार जाने क्यों
जहाँ में हो रही बातें अमन कायम रहे हरसू
मगर है खून से डूबा हुआ अखबार जाने क्यों
हमारे शोख गुलशन को नजर किसने लगा दी है
ज़मी में बो रहा हूँ फूल उगते खार जाने क्यों
गुनाहों को तिरे हम माफ़ करते जान के बच्चा
तुझे तो रास आती है नहीं पुचकार जाने क्यों
दिलों में घोलते नफरत उठाते रोज दीवारें
“धरम ” ये पल रहे हैं देश के गद्दार जाने क्यों
— धर्म पाण्डेय
बहुत शानदार ग़ज़ल ! आज के सत्य को व्यक्त करती है यह ग़ज़ल !
अच्छी ग़ज़ल .