प्रेरक मंत्र
”उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरावरान्निबोधत” मंत्र से तो आप सब भलीभांति परिचित होंगे. यही तो है, जय विजय पत्रिका के सृजन के शंखनाद का प्रेरणा सूत्र. इस अनमोल मंत्र के सृजेता हैं- स्वामी विवेकानंद. इसका अर्थ है-
”उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ. अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए.”
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ और मृत्यु 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में हुई. एक युवा सन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखेरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे. विवेकानन्द जी का मूल नाम ‘नरेंद्रनाथ दत्त’ था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए. युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए, आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया. कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे. भारत में स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है.
इसी मंत्र के कारण ही स्वामी विवेकानन्द युगांतरकारी बन पाए. छोटे-से इस मंत्र में अनेक बड़ी-बड़ी शिक्षाएं समाहित हैं. उठना है, जागना है, स्वयं जागकर औरों को भी जगाना है, अपने नर-जन्म को सफल करना है और तब तक रुक नहीं है, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए. यहां जागना और जगाना का तात्पर्य केवल मात्र नींद से जगने-जगाने का ही नहीं है, अपितु आध्यात्मिक रूप से जगने-जगाने से है. सचमुच आध्यात्मिक व्यक्ति वह होता है, जो अपनी उन्नति के साथ औरों को भी उन्नत करता चले. आइए इस मूल मंत्र से हम भी प्रेरणा लेकर अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त कर लें.
उठना है, जागना है, स्वयं जागकर औरों को भी जगाना है, अपने नर-जन्म को सफल करना है और तब तक रुकना नहीं है, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए. लीला बहन, विवेकानंद जी की शिक्षा को आप और विजय भाई खूब निभा रहे हैं और आप का धन्यवाद करना बनता है .विजय भाई इतने लेखकों साहित्कारों को प्रोत्साहन कर रहे हैं ,यह सेवा ही तो है !
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपका आशीर्वाद बना रहे.
प्रणाम भाई साहब ! आभारी हूँ आपका.
बहुत सुंदर बात, बहिन जी ! पहली बार किसी ने ‘जय विजय’ के इस ध्येय वाक्य पर ध्यान दिया है।
प्रिय विजय भाई जी, यही ध्येय वाक्य हमारे जीवन का भी ध्येय वाक्य है. हमारी दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में पं. श्रीराम शर्मा की पुस्तक ”उत्तिष्ठत जाग्रत” ने हमें बहुत प्रभावित किया था. वहीं से हमने सबसे पहले अपने आसपास के माहौल का अवलोकन करना सीखा, फिर आपका तो शंख बोलता है. बस, वह नाद हमारे कानों ने सुन लिया. इतना अच्छा ध्येय वाक्य चुनने के लिए शुक्रिया.