मेरी कहानी 104
हम तीनों भाई हर सुबह खेतों में जाते थे किओंकि खेत तो पांच मिनट की दूरी पर ही थे. बड़े भाई शुरू से ही कीकर के वृक्ष की दातुन के बहुत शौक़ीन थे और यह आदत उन को देख कर हमें भी पड़ गई थी. खेतों में यहाँ हमारा कुआं था, उस के नज़दीक काफी वृक्ष थे जिस में एक कीकर का वृक्ष भी था. बड़े भाई अपने चाक़ू से हर रोज़ एक टहनी काट लेते, जिस से तीन दातुन बना लेते. इन दातुनों को मुंह में चबाते चबाते हम दूर दूर निकल जाते. कभी हम पड़ोसी किसान के खेतों में चले जाते और उन लोगों से बातें करते रहते. किसान हमें गन्ना ले लेने को कहते. किसान की यही आव भगत होती है कि वोह जो भी उस वक्त उस के पास होता है, वोह ही देने की जिद करता है. हम भी कभी कभी तीन मोटे मोटे गन्ने खेत से उखाड़ लेते और जब दातुन ख़तम होती तो हम गन्ने चूसने लगते. गन्ने चूसते चूसते जब हम घर की तरफ बड़ते तो गन्ने की आखरी पोरी को चूसकर उसको ऊपर नीचे के दांतों पर रगड़ते, जिस से दांत बिलकुल साफ़ हो जाते.
घर आकर नल पर हम स्नान करते और बड़े भाई जपुजी साहब का पाठ करने लगते और आखर में गुरु नानक देव जी की फ्रेम की हुई तस्वीर के सामने खड़े हो कर हाथ जोड़ कर अरदास करते लेकिन वोह अकेले ही पाठ करते थे, कभी निर्मल भी शामल हो जाता था लेकिन झूठ नहीं बोलूँगा, मेरी कभी भी इन बातों में दिलचस्पी नहीं रही थी. भाई साहब ने हमें कभी भी नहीं कहा था कि हम भी पाठ करें. बड़े भाई मीट शराब के शौक़ीन थे लेकिन दिन में दो दफा पाठ जरुर करते थे, सुबह को जपुजी साहब और शाम को रहरस का पाठ. यहाँ तक मुझे पता है, बड़े भाई कभी भी किसी के साथ बुराई नहीं करते थे और सच बोलने से भी डरते नहीं थे, चाहे कुछ भी हो जाए. बड़े भाई की एक दिलचस्पी होती थी नीम के पत्तों का रस निकाल कर पीना जिस को वे कड़वा घूँट बोला करते थे और कभी कभी नीम के पत्तों को तवे पर हल्का सा भून कर, उसमें एक दो चमचे शक्कर के डाल कर खाया करते थे और कभी कभी हम भी खा लेते थे. नीम के पत्तों का रस पीना तो ज़हर पीने के बराबर होता था किओंकि इतना कड़वा होता था कि हमें समझ नहीं आती थी कि बड़े भाई कैसे पी लेते थे. बड़े भाई एक वर्ष हुआ ८० साल के हो कर इस संसार को छोड़ गए थे. जिस दिन वोह पूरे हुए, वोह अचानक ही संसार छोड़ गए. वोह हर रोज़ सुबह पांच वजे उठ कर पाठ करते थे. इसी तरह एक दिन उन्होंने सुबह पांच वजे पाठ किया और बाद में चारपाई पर लेट गए जैसे वोह हर रोज़ करते थे. कुछ देर बाद भाबी जब चाय देने आई तो वोह संसार छोड़ चुक्के थे.
जनवरी बीत चुक्की थी और अफ्रीका से भाबी के ख़त लगातार आ रहे थे कि वोह वापस आ जाएँ किओंकि पीछे काम खराब हो रहा था. अब वोह जहाज़ की सीट का इंतजाम करने लगे जो उन्हें शीघ्र ही मिल गई. बड़े भाई के सुसराल कोटली थान सिंह गाँव में थे और वोह वहां अपने सास ससुर से मिलने चले गए और वहां से ही उन्होंने आदम पुर भाबी की बहन और उस के पति से मिलने जाना था. कुछ और रिश्तेदारों को मिलकर वोह वापस राणी पुर आ गए और एक दिन दिली एअरपोर्ट को चल दिए. एक हफ्ते बाद ही उन का ख़त आ गिया कि वोह सही सलामत पहुँच गए थे. अब हमारे पास भी कोई ख़ास काम करने को था नहीं और एक दिन हम बच्चों को ले कर मेरी मासी के गाँव बाहो पुर को चल दिए और हमारे साथ निर्मल की पत्नी परमजीत भी हो ली। याद नहीं एक या दो दिन रह कर हम वापस आ गए। गेंहूँ की फसल दिनबदिन ऊंची हो रही थी और कहीं कहीं ऊपर दाने भरने लगे थे। मैं भी अक्सर गियान की हट्टी की तरफ चले जाता। कभी जट्ट मुहल्ले में चले जाता, लोगों से मिलता, बातें करता और कभी कभी हमारे पहले घर की ओर चले जाता और पुराने घर में रह रहे लोगों से मिलता और छत पर चले जाता, पुरानी बातें याद हो आतीं। इसी घर की सिड़िओं से मैं बचपन में गिरता गिरता बचा था, जब रहमत अली गोलिआं चला रहा था, वोह देश भिवाजन के दिन कितने बुरे और खतरनाक थे। इसी घर के पिछले चुबारे में मैंने हारमोनियम वजाना सीखा था, इसी घर में एक चोर चोरी करने आया था, इस घर की यादें तो इतनी हैं कि ताऊ रत्न सिंह ताऊ नन्द सिंह बुआ परतापो की यादें एक इतहास छुपाये हुए हैं।
कभी कभी मास्टर बाबू राम का लड़का राम सरूप जिस को नप्प्ल भी बोलते थे, मिल जाता। नप्प्ल शुरू से ही लड़किओं और बड़ी औरतों का चहेता होता था, उस की ऐटिंग लड़किओं जैसी होती थी, जिस के कारण लड़किओं को उससे कोई झिजक नहीं होती थी, वोह दिल का बहुत साफ़ और हंसमुख होता था। मेरा दोस्त बहादर कुछ महीने हुए जब इंडिया गिया था तो नप्प्ल को मिल कर आया था। बहादर बताता था कि रामसरूप यानी नप्प्ल अब बूढ़ा हो गिया है लेकिन उसकी आदतें वोह ही हैं जो बचपन में होती थीं। कभी कभी मैं पीपलों की ओर चले जाता। मैं छोटा सा था जब किसी ने मंदिर के साथ एक बोहड़ का छोटा सा बृक्ष लगाया था, अब वोह बहुत बड़ा हो गिया था। पंडित भुल्ला राम ज्योतिषी का पोता गुड्डू मिल जाता, उससे बातें करता रहता। ऐसे घुमते घुमते दिन बतीत होने लगे और अब और समय राणी पुर में बतीत करना मुझे बेकार लगने लगा था। इंगलैंड का अपना घर याद आने लगा था जिस को गियानी जी को सपुर्द करके आये थे। काम की भी कुछ कुछ चिंता होने लगी थी। सभी रिश्तेदारों से मिल हो गिया था और अब कुलवंत की दिली वाली बहन को मिलना रह गिया था। इसी लिए हम ने टिकट दिली से करवा ली ताकि कुलवंत की बहन को मिलकर दिली एअरपोर्ट से चढ़ना ही ठीक रहेगा । कुछ दिन शॉपिंग में लग गए और हमने पैकिंग शुरू कर दी। याद नहीं यह मार्च महीने का आखिर था या अप्रैल शुरू हो गिया था लेकिन इतना याद है कि गेंहूँ की फसल कटाई के नज़दीक आ गई थी और गर्मी बढ़ने लगी थी।
जाने से पहले बाकी सब घर वालों को तो पता था लेकिन दादा जी को अभी बताया नहीं गिया था। दादा जी को कैसे बताया जाए हमारा हौसला पड़ता नहीं था। जाने से एक दिन पहले शाम को जब सभी बरांडे में बैठे थे तो मैंने बेटी पिंकी को सिखाया कि दादा जी को वोह बताये। जैसे मैंने समझाया, पिंकी दादा जी के नज़दीक आ कर उनके कान में कहने लगी, ” बाबा जी ! असीं कल नूं इंगलैंड चले जाणा है !”. दादा जी को सुना नहीं, बोले “हैं ?”. मैंने पिंकी को फिर कहा कि पिंकी ! “ज़रा और ऊंचा”. पिंकी फिर ऊंची से बोली, “बाबा जी ! असीं कल नूं इंगलैंड चले जाणा है !”. दादा जी के मुंह से निकला, “हैं एएएए?” दादा जी फूट फूट कर रोने लगे, पता नहीं कितनी देर से उन्होंने यह तूफ़ान रोक कर रखा हुआ था। हम नज़दीक आ गए और दादा जी के कंधे पर हाथ रख दिए, जिससे उन को कुछ हौसला हो गिया और चुप कर गए। दादा जी को जिंदगी में मैंने कभी रोते हुए देखा नहीं था लेकिन अब दो दफा उन को रोते देखा, एक दिन जब ताऊ रत्न सिंह को अर्थी पर लेकर चले थे और अब आज के दिन । दादा जी दिल के बहुत सख्त होते थे और जल्दी ही सामान्य हो गए और बातें करने लगे लेकिन जब पिंकी के जवाब में उन्होंने हैं एएएए बोला था, वोह सीन मेरी आँखों के सामने से जाता नहीं, बस उसी तरह वोह मुझे दिखाई देते है, एक कुर्सी जो कभी मैंने ही फगवाड़े से खरीदी थी, उस पर बैठे हुए और आगे छड़ी रखे हुए। कहाँ चले जाते हैं लोग ?????????????
टाँगे वाले को पहले ही कह रखा था कि वोह सुबह को जल्दी आ जाए। फगवाड़े रेलवे स्टेशन से हम ने ट्रेन लेनी थी, याद नहीं कितने वजे ट्रेन चलनी थी लेकिन इतना याद है कि यह छै सात वजे के करीब होगी। सुबह को माँ और निर्मल की पत्नी सब से पहले उठ गईं और सब्जी बना दी और फिर चाय बना कर पराठे बनाने लगी। हम भी उठ गए और फिर बच्चों को उठाया और नित्य क्रिया से फ़ार्ग हो कर, कपड़े पहनकर तैयार हो गए। सभी ने चाय पी। माँ ने सब्जी और पराठे बाँध दिए जो हम ने ट्रेन में बैठ कर खाने थे। तांगे वाला जो अपने गाँव का ही था, आ गिया। सारा सामान रखा, अपने पासपोर्ट और टिकटें चैक्क कीं, पैसे बगैरा चैक्क किये, सब ठीक था, माँ से मिलकर हम चल दिए, दादा जी को जगाया नहीं था ताकि वोह अपसैट ना हो जाएँ। निर्मल बाइसिकल पर साथ साथ चल रहा था। अभी अँधेरा ही था, मेरी आँखों से पानी बह रहा था, कुलवंत भी चुप चुप थी। काफी दूर जा कर जब मैं कुछ ठीक हुआ तो निर्मल से बातें होने लगीं। किया किया बातें हुईं, याद नहीं, घर की बातें ही होंगी। फगवाड़े रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए, टिकट लिए और दो कुलिओं को सामान उठाने को कह दिया। कुली सामान उठाकर प्लेटफार्म की ओर चलने लगे। निर्मल ने भी प्लेटफार्म टिकट लिया हुआ था। प्लेटफार्म पर काफी दूर जा कर कुलिओं ने एक बैंच के नज़दीक सामान रख दिया और हम बैंचों पर बैठ गए। कुलिओं को कैसे पता होता है कि डिब्बा यहाँ आकर ही खड़ा होगा, मैं सोचने लगा और मैंने कुली से पूछ ही लिया। वोह बोला, साहब ! पच्चीस साल से यहाँ हूँ और मुझे हर ट्रेन और डिब्बे का पता है। मैं भी सोचने लगा कि जैसे मुझे बस्सों के बारे में पता है, इसी तरह ही इसको इसके काम का पता है। बातें करते करते ट्रेन आ गई और हम सीटों पर बैठ गए और दिल्ली की ओर चलने लगे।
दिन काफी चढ़ आया था और भूख लग रही थी। कुलवंत ने पराठे निकाले और मज़े से खाने लगे। चाय वाला भी इधर उधर घूम रहा था और उस से चाय ली और सभी ने जी भर कर खाया। जैसे जैसे दिल्ली की ओर जा रहे थे, गर्मी बढ़ती जा रही थी। एक दो बजे होंगे, बच्चों के चेहरे गर्मी से लाल हो रहे थे। एक भली सी पचास के करीब औरत जो एक प्रिंटड साड़ी में थी, बच्चों से बातें करने लगी। पहले तो बच्चे कुछ शर्मा गए लेकिन जब उस ने ट्विंकल ट्विंकल लिटल स्टार गाया तो बच्चे खुश हो गए और बोलने लगे। लगता था, वोह औरत टीचर ही होगी क्योंकि उस की बोल चाल बहुत मधुर थी। उस के पास छोटी सी एक मट्टी की मटकी थी जिस का मुंह ऊपर को बोतल जैसा था और एक तरफ पकड़ने के लिए चाय की केटल जैसा हैंडल लगा हुआ था। उस ने मटकी से एक ग्लास में ठंडा पानी डाला और बच्चों को पिलाया।
पता ही नहीं चला कब दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए। कुली सामान बाहर ले आया और टैक्सीओं वाले भी हमारे इर्द गिर्द इकठे हो गए। एक को मैं ने सामान रखने को कह दिया। दिल्ली में तो पंजाब से बहुत ज़्यादा गर्मी थी। जब हम टैक्सी में बैठे तो टैक्सी भट्टी की तरह तप रही थी। ट्रैफिक से निकल कर जब टैक्सी चलने लगी तो कुछ हवा भी लगने लगी। कुछ दूर जा कर टैक्सी खड़ी हो गई, इंजिन में कुछ खराबी थी। टैक्सी वाला बौनेट खोल कर कार ठीक करने लगा लेकिन हम अंदर बैठे गर्मी से पसीना पसीना हो रहे थे। कुछ मिनट में उस ने ठीक कर लिया और फिर चलने लगे। ऐसे तीन दफा हुआ और बच्चों के चेहरों पर गर्मी के कारण स्पॉट निकलने लगे। कुलवंत की बहन का घर तिलक नगर में था। तिलक नगर में मकान अब 1962 से ज़्यादा बने हुए थे लेकिन अभी भी कई प्लाट खाली पड़े थे। रब रब करके हम कुलवंत की बहन के घर पहुँच गए और जाते ही मैं बोला, ” भाई चाय पानी बाद में पहले हम सभी ने नहाना है। कुलवंत का जीजा अवतार सिंह बिलखूँ हंस कर बोला, “यह है गुसलखाना और स्नान करो “.
चलता.. . .
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. आज के लेख की पूरी सामग्री बहुत अच्छी लगी। दादा जी से विदाई के क्षण कष्टदायक लग रहे थे। सादर।
मनमोहन भाई , मेरी कहानी के साथ साथ चलने के लिए बहुत बहुत धन्यावाद . बस बजुर्गों की यादें ही रह जाती हैं .
भाई साहब, आपकी हर कड़ी रोचक होती है. हर बार एक जिज्ञासा कि अब क्या हुआ होगा!
विजय भाई , आप मेरी कहानी पढ़ रहे हैं और मुझे आगे लिखने का हौसला मिलता है .
धन्यवाद ,लीला बहन ,मेरी कोशिश जारी रहेगी .
प्रिय गुरमैल भाई जी, समय बीतते पता ही नहीं चलता, आप को अपनी कहानी लिखते हुए और हमें पढ़ते हुए एक साल हो भी गया. यह अद्भुत आत्मकथा अनवरत चलती रहे, ऐसी हमारी शुभकामना है.