सकारात्मकता से सहजता
नीरू घर-दफ्तर का काम करने के बावजूद लेखन में भी व्यस्त रहती थी. वह अधिकतर सकारात्मक लेखन करती थी और अन्य लेखकों की सकारात्मक रचनाओं पर प्रतिक्रियाएं भी लिखती थी. अपने व्यावहारिक जीवन में भी सकारात्मकता का रुख अपनाने के कारण वह हमेशा प्रसन्नचित रहती थी. एक बार उस ने रात को एक सपना देखा. सपना ख़ास डरावना तो नहीं था, लेकिन चलती हुई फास्ट ट्रेन से दो बच्चों को बचाने का था. कुछ बच्चों को बचाने की हड़बड़ाहट और कुछ चलती हुई फास्ट ट्रेन की घबराहट के कारण वह थोड़े-से स्लाईटिंग गद्दे के कारण रात को सोते-सोते पलंग से गिर गई. पलंग की साईड टेबिल से चेहरे के टकरा जाने के कारण उसकी बांईं आंख के पास मोटा-सा गूमड़ हो गया और रक्त की कुछ बूंदें भी छलक गईं. वह तुरंत उठकर गूमड़ को दबाने लगी. उसके हाथ भी रक्तिम हो गए. फ़र्श पर कारपेट होने के बावजूद हल्की-सी आवाज़ से उसके पतिदेव की नींद खुल गई और बोले, ”क्या हुआ?”
”कुछ नहीं, सपने के कारण ज़रा गिर गई थी, ख़ास चोट नहीं आई.” नीरू ने संयत होते हुए कहा, ताकि उसके पतिदेव घबरा न जाएं.
फिर भी पतिदेव ने लाइट ऑन करके देखा, बांईं आंख के पास मोटा-सा गूमड़ और पलंग की चद्दर पर खून की बूंद देखकर तनिक घबरा गए और बोले- ”बहू को उठा देता हूं, कुछ दवाई वगैरह लगा देगी.” आवाज़ में पतिदेव की घबराहट भी साफ झलक रही थी.
”बहू को उठाने की कोई ज़रूरत ही नहीं है, एक तो परमात्मा का शुक्र है, कि आंख बच गई है, दूसरे गूमड़ से खून निकलने के कारण अंतरिम चोट की भी कोई संभावना नहीं है, गूमड़ को दबाकर ही रखना है, सो मैं कर लूंगी, प्लीज़ आप भी सो जाइए और बहूरानी को भी सोने दीजिए, बड़ी मुश्किल से बच्चों को सुलाकर देर से सोई है, फिर सुबह जल्दी उठकर बच्चों के स्कूल की तैयारी करनी है.”
नीरू गूमड़ को हाथ से दबाए-दबाए ही परमात्मा के शुकराने करती हुई सो गई. सुबह उठी, तो गूमड़ गायब था, बस हल्की-सी उभराहट थी और उस पर एक छोटा-सा कट. उसकी बहू बच्चों का नाश्ता बनाने आई, तो नीरू ने हंसते-हंसते उसको रात की बात बताई. स्वभावतः बहू ने कहा- ”ममी जी, मुझे उठा दिया होता.”
हंसकर नीरू ने कहा- ”बेटे उसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी. दो मिनट में हम भी सो गए थे.”
सकारात्मक लेखन व स्वभाव के कारण ही सब कुछ सहज हो पाया था.
बहुत अच्छी लघुकथा।
प्रिय विजय भाई जी, सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
प्रिय अरुण भाई जी, सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
अतीव सुन्दर
प्रिय अरुण भाई जी, सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया.
कहानी शिक्षाप्रद है। पहली शिक्षा तो यह मिली कि दुःख में मनुष्य को संतुलित रहना चाइये, घबराना नहीं चाहिए। घबराने से स्थिति बिगड़ सकती है। अपने परिवार के सभी लोगो के सुख व आराम का बड़े लोगो को ध्यान रखना चाहिए। दुःख में यदि ईश्वर को याद करें तो मुझे लगता है कि लाभ मिलता है। आपने भी इसका उल्लेख किया है, यह मुझे बहुत अच्छा लगा। दुखों में ईश्वर औषधों की औषध महाऔषध होती है। सादर धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।
प्रिय मनमोहन भाई जी, आपने संतुलित प्रतिक्रिया देकर कहानी का सार ही बता दिया है. बेमिसाल प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
लीला बहन , कहानी अच्छी लगी .इस में आप ने स्कार्त्मिकता की बहुत बड़ी बात कह दी . आम लोगों की आदत है , जिस में मैं भी हूँ कि छोटी सी बात को बड़ी बना देना .अगर नीरू इस बात को ले कर सब को परेशान करती तो कितने लोग डिस्टर्ब होते और बहु को भी बेआरामी होती .छोटी मोटी चोटें तो लगती रहती हैं और नीरू ने अपनी स्कार्त्मिकता सोच के कारण इस बात को साधारण बना दिया और जिंदगी नॉर्मल हो गई .
प्रिय गुरमैल भाई जी, सचमुच सकारात्मकता एक बड़ा संबल है. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.