कविता : बहार
झिलमिल बहार
जगमगाहट से ज़ड़े
सितारों में थी
भीनी सी महक
दूरियों का कायम
सिलसिला अविराम था
हृदय मेरा काँच का
आईना सा झिलमिल
झिलमिला बुलाता बहार
रूप शब्दों में था गुँथा
निहारता सेहरे बहारो के
नयी रिमझिम दिखा
चाँद पर चढ़े सितारें
गीत का-सा संस्पर्श
दोड़ता रक्त अनवरत
धमनियों से शिराओं में
आँखें खुलती
पा मोहिनी सी
संसर्ग की
फिर मूँद जाती
खून में पृथकता नही
आदमी या औरत की
दो आत्मा एक थी
मन का अंतरंग महका
प्रेमी भुजाओं में कस रही
थी सुंदर कमसिन
महक ऐसी
जैसे आती हो
किसी मयखाने से
ढल रही थी सौंदर्य प्रतिमा
कई युग से
सौदर्य के साँचों में
आज ढल चुकी थी
शाम सी हमेशा को वह
उम्र के पायदान पर
बहारें रो रही थी
गा कर शान्ति गीत
प्रेमियों की गोद एक नगमा
जब जोड़े की भरी गोद
आनंद की सुंदर छवि
जिस पर शत
न्यौछावर अमर
बहार हैं
डॉ मधु त्रिवेदी
वाह वाह !