खतागार
मैं तेरी मोहब्बत के काबिल नहीं
ये खता है मेरी मैं खतागार हूँ
जो चाहे तू मुझको सजा आज दे
गर है मुझपे यकीन तो ये जान ले
बेवफा मैं नहीं तू है चाहत मेरी
जमाने की धूप में तू है राहत मेरी
जानती हूँ मैं ये कि तू मेरा नहीं
दूरी कितनी ही हो तेरे मेरे दरम्या
मोहब्बत मेरी तुझसे कभी कम ना होगी
जब जरूरत हो मेरी पलटकर देखना
तेरे साये की जगह मैं रहून्गी।
जब लगे तू है अकेला राहो में
एक आवाज देना मुझे प्यार से
पाओगे उस पल मुझे बाहो में ।
अनुपमा दीक्षित मयंक
बढ़िया कविता !