गीत
कोई अमीर है, कोई गरीब है
बस अपना अपना नसीब है
मुलाकात अपनी ना हो सकी
तू भी फासलों पे कुछ रहे
मैं भी देखूँ दूर दूर से
यहाँ कौन किसके करीब है
बस अपना अपना नसीब है
मैं ना कह सका मेरे दिल की बात
कई खत लिखे हुए रह गए
कासिद कोई मिला नहीं
हर शख्स जैसे रकीब है
बस अपना अपना नसीब है
हूँ अपनी ही मैं कैद में
तू भी कँहा आज़ाद है
तेरे पाँव में सोने की बेड़ियाँ
यहाँ मुफलिसी का सलीब है
बस अपना अपना नसीब है
कोई खाने को मीलों चले
कड़ी धूप में घण्टों जले
कोई ज्यादा खा के है मर रहा
ये दुनिया कितनी अजीब है
बस अपना अपना नसीब है
तुझे भूलने की चाह में
मैंने अपनी ज़ात को खो दिया
मेरी लाश तक है तड़प रही
ये दर्द कितना ज़दीद है
बस अपना अपना नसीब है
— भरत मल्होत्रा