रायचंद
हम सब को दूसरों को राय देने की बहुत बुरी आदत है। शायद ही कोई ऐसा हो जिसने दूसरों को राय न दी हो। “तुम्हें ऐसा नहीं वैसा करना चाहिए था।” या “मैं तुम्हारी जगह होता तो ऐसा करता. . . . “। हम सभी ऐसा कहते हैं क्योंकि हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि न तो हम उसकी जगह होते और न हमें ऐसा करने की आवश्यकता पड़ती जैसा कि हम डींगें मार-मार कर कहे जा रहें हैं। किसी की भी गलती पर राय देनी बहुत आसान होती है लेकिन उन गलतियों को समझना उतना ही मुश्किल होता है। सच्चे मायने में राय देनी तभी सही होती है जब कोई गलत कदम उठाने से पहले सही सलाह देकर उसे रोक ले, लेकिन यह क्या बात हुई कि गलती करने वाले पर सब उपदेशों के बाण लेकर पिल पड़े। कुछ लोग तो राय देने की फ़िराक में रहते हैं कि कोई ऐसी असमंजस्य की स्थिति में पँहुँचे और गलत निर्णय ले ताकि उन्हें मुँह खोलने का मौका मिले और उपदेशों की बारिश हो।
निर्णय लेना एक साहस का काम है इसलिए कभी-कभी हमें निर्णय लेनेवाले की प्रशंसा करनी चाहिए। जिस मानसिक ऊहापोह का सामना वह करता है उसे केवल वह ही समझ सकता है। निर्णय का सही या गलत होना तो समय के हाथ में है। कभी-कभी गलत लिए गए निर्णय वक्त बदलने पर सही साबित हो जाते हैं और ऐसे ही कभी सही लिए हुए निर्णय गलत परिणाम दे जाते हैं। सही निर्णय लेने के लिए तो भगवान बनना पड़ेगा क्योंकि भविष्य में झाँकने की शक्ति तो केवल उसी के पास है और जो भविष्य जान सके वही सही निर्णय ले सकता है।
दूसरों को राय देने का विषय हो और हमारे देश के महान क्रिकेट प्रेमियों की चर्चा न हो, यह कैसे हो सकता है। किसको कैसी बॉल डालनी चाहिए ये तो वही अच्छी तरह से बता सकते हैं, गेंदबाज़ तो सारे मूर्ख हैं। कैप्टन ने चाहें जिसे भी बल्लेबाज़ी के लिए भेजा हो, अगर वह क्रीज़ पर टिक गया तो वाह-वाही, नहीं तो कैप्टन की अक्ल का पोस्टमार्टम कर दिया जाता है। जिन्होने जीवन में कभी बल्ला तक न पकड़ा होगा वह कहते हैं “इस खूबसूरत बॉल पर तो चौका लगाना चाहिए था, बेवकूफ ने बॉल बर्बाद कर दी”। जबकि सच तो यह है कि वहाँ मैदान में खड़े खिलाडियों से बेहतर यह कोई नहीं समझ सकता है कि इतने दबाव में रहकर कोई भी निर्णय लेने का साहस क्या होता है। ध्यान से देखा जाए तो निर्णय लेना एक सिक्का उछालने जैसा ही है। अगर आपने चित्त माँगा और पट निकल गया तो इसमें आपकी अक्ल का दोष है, आपसे अच्छा तो वह बच्चा निर्णय ले सकता है जिसने पट कहा और पट ही निकला।
कहीं-कहीं तो ऐसा भी देखा गया है कि निर्णय लेने की परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी व्यक्ति प्रतिकूल निर्णय लेता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि हम उस व्यक्ति की मानसिकता को पहले समझें। कोई भी मनुष्य निपट-निरा मूर्ख नहीं होता। संभव है उसकी प्राथमिकताऐं हमारी सोच से अलग हों। हम सभी के कुछ उसूल होते हैं; हो सकता है उसके उसूल उसके आड़े आ रहे हों। यह भी हो सकता है कि हमें उसकी परिस्थितियों का पूरा-पूरा ज्ञान ही न हो। कहीं-कहीं तो यह भी संभव है कि हम जो समस्या सोच रहे हैं वह दरअसल हो ही न, बल्कि उसकी समस्या ही कुछ ओर हो, जो वो हमें न बता रहा हो क्योंकि अक्सर ऐसा पाया जाता है कि जो आँखों से दिखे वो अधूरा सच होता है। ऐसे में हम यह निर्णय कैसे ले सकते हैं कि भला हम उसकी जगह होते तो क्या करते।
आज का जीवन परदों का जीवन है। आज आदमी कई परदों में जी रहा है। हरेक से परदा करना उसकी जीवन शैली बन चुकी है। जो रुप उसका अपने घरवालों के सामने है दफ्त़र में जाते ही उस पर परदा पड़ जाता है, बाज़ार में या सड़क पर जाते ही एक और परदा पड़ जाता है, सामाजिक कार्यक्रमों में वह कई परदों के भीतर चला जाता है। हमारी सामाजिक परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि आदमी को कई परदों में जीने पर मज़बूर करती हैं। किसी के परदों मे झाँकने का या उसे उघाड़ने का अधिकार किसी को नहीं है। ऐसे में यह पता लगाना कठिन है कि सामने वाला व्यक्ति आप से किस बात को लेकर परदा कर रहा है। ऐसे आधे-अधूरे सच के बीच हम अपने रायों का पोथा खोल बैठते हैं और हमारे छोटे से जीवन के अनुभव के आधार पर किसी बड़े साधु-महात्मा की तरह या किसी आकाशवाणी की तरह बडे-बड़े समाधान बताते हैं। रामायण के धोबी की तरह उस चीज पर आक्षेप लगाने से भी नहीं चूकते जो हमने कभी देखी ही नहीं।
हमें किसी के लिए हुए निर्णय को बिना पूरी तरह जाने उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए, हो सके तो उसका सम्मान करना चाहिए जो ऐसे निर्णय लेता हो, विशेषकर जब लिया गया निर्णय बहुत बडा एवं जोखिमपूर्ण हो। बडे-बड़े पदों की महत्ता केवल इस कारण ही होती है कि उन पदों पर आसीन अधिकारियों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने का साहस करना पड़ता है और फिर लिए हुए निर्णय के परिणाम की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। ऐसे पदों का सम्मान इसी कारण अधिक होता है।
जब कोई अपने करियर को ध्यान में रखकर परिवार से दूर तबादले के लिए भी अपना मानस बना लेता है तो हम सभी उसे यह एहसास दिलाते है कि वह कितना गलत निर्णय ले रहा है; वह निरा-निपट मूर्ख है जो पदोन्नति के नाम पर अपनी खुशियों की बलि दे रहा है। अंतत: जीवन का असली आनन्द तो परिवार को खुश रखने में है, उनका साथ पाने में है। हम कमा किस लिए रहे हैं? आखिर उन्हीं के लिए तो….ऐसी तरक्की भला किस काम की? ऐसे में ऐसी-ऐसी राय मुख से निकलती है कि तरक्की पाने वाले कर्मचारी की खुशी दु:ख के अथाह सागर में डूब जाती है। अक्सर ऐसी राय देनेवालो में वे महापुरुष शामिल होते हैं जिन्होंने स्वयं जीवन में कभी तरक्की का अवसर न पाया हो या जो अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके जीवन में यह सुख नहीं है या फिर जो अपने निवास स्थान की सुख-सुविधा से दूर जाने का साहस नहीं कर पाते। ऐसे में हम राय देते समय यह क्यों भूल जाते हैं कि यह निर्णय लेना उस कर्मचारी के लिए भी कितना कठिन रहा होगा? उसे दिन-रात यह चिंता अवश्य सताती होगी कि उसकी अनुपस्थिति में उसके परिवार का क्या होगा? हमें ऐसे निर्णयों का सम्मान करना चाहिए जहाँ किसी ने सुख-सुविधा के स्थान पर कठिन परिश्रम और त्याग का रास्ता चुना। रामायण का उदाहरण लिया जाए तो श्रीराम अपने पिता को मृत्यु के द्वार पर छोडकर वनवास चले गए थे एवं अपनी विधवा माताओं के वैधव्य के समय उन्हें चौदह वर्ष तक अपनी सेवा-सुश्रुषा से वंचित रखा था।
ठीक ऐसे ही जब कोई अपने करियर के पीछे न पड़कर अपने परिवार के साथ रहने का चुनाव करता है तो वह भी रायों की लंबी श्रृंखला द्वारा प्रताड़ित किया जाता है। ऐसा महामूर्ख तो कोई दूसरा हो ही नहीं सकता जो द्वार पर आई यश-कीर्ति-लक्ष्मी-महालक्ष्मी को लौटा देता है। परिवार के साथ ही रहना था तो घर बैठते, काम करने की ज़रूरत ही क्या थी? अपने निजी स्वार्थ के लिए संस्था का नुकसान करने पर क्यों आमादा हो? क्या पारिवारिक सुख ही सब कुछ है, जिस संस्था की रोटी खाते हो उसके प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं बनता? क्या यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं की संस्था की प्रगति के बारे में सोचो? ऐसी अनंत रायें हैं जो हम दे सकते हैं. . . नहीं. . . नहीं. . . हम देते हैं और बड़े शान से देते हैं, यह विचार किए बगैर कि उस कर्मचारी के लिए यह निर्णय लेना कितना कठिन रहा होगा? आखिर आगे बढना किसे पसंद नहीं और कौन ये बर्दाश्त कर सकता है कि उसे उनके नीचे काम करना पड़े जो कभी उससे कनिष्ठ(Junior) हुआ करते थे और उसके नीचे काम किया करते थे। हमें ऐसे निर्णयों का भी सम्मान करना चाहिए जहाँ किसी ने धन-ऐश्वर्य के स्थान पर सेवा और धर्म का रास्ता चुना।
जहाँ हमें राय देने की आदत पड़ चुकी है वहीं हमें निर्णय लेने वालों का सम्मान करने की आदत भी डाल लेनी चाहिए क्योंकि कोरी राय किसी काम की नहीं होती। अत: दूसरों को राय देने वालों से मेरा निवेदन है कि अगली बार रायचंद बनने से पहले ज़रा सोच-विचार लें कि क्या आप को सामने वाले की पूर्ण परिस्थिति का ज्ञान है।
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