ग़ज़ल
हमने तो बस माँगा था मुलाकात का वक्त,
माना कि बहुत कीमती है आपका वक्त
गैरों से तो मिलते रहे खुश हो के तुम गले,
और हमको कह दिया नहीं है बात का वक्त
रोटी की कशमकश में दिन तो निकल गया,
कैसे कटेगा अब मगर ये रात का वक्त
काम कोई आज का कल पे ना टाल तू,
किसे पता कल होगा किस मिजाज का वक्त
हर वक्त मेरे साथ रहे मेरे सब अज़ीज़,
जनाजे का हो चाहे हो बारात का वक्त
बर्बादियों पे दूसरों की हंसने वाले सुन,
आएगा कभी तेरे भी हिसाब का वक्त
— भरत मल्होत्रा
बहुत अच्छी ग़ज़ल !