कविता : स्त्रीलिंग
वो आया,
हँसा
बोला
सुना
चिल्लाया
फिर थोड़ा मुस्कराया,
तलब लगी थी ,
हाथ में लिया ,
ऊँगलियों में फँसाया,
मुँह से लगाया..
धुएँ के गोल-गोल छल्ले बनाये,
सारा नशा धीरे – धीरे खींच लिया
सुलगती राख कोने में झाड़ दी,
बचा हुआ टुकड़ा भी
पैरों तले मसल दिया..
जूते की एड़ी से कुचल दिया,
पता नहीं !!
मैं या सिगरेट ..
सिगरेट या मैं !!
हुँअ !!
क्या फर्क पड़ता है ??
सिगरेट हो या औरत ,
हैं तो दोनों ही स्त्रीलिंग!
— शालिनी ‘कशिश’
वाह
गजब की तुलना