ग़ज़ल : ग़द्दारी नहीं जाती
पराये मुल्क से उसकी वफादारी नहीं जाती ।
लहू गर हो बहुत गन्दा तो गद्दारी नहीं जाती ।।
वतन के कातिलों से ये जमाना हो गया वाकिफ।
मगर क़ानून घायल हो तो लाचारी नही जाती ।।
अमन जिन्दा रहे या ख़ाक हो जाए फसानों में ।
सियासत की जुबाँ से अब तो बीमारी नहीं जाती ।।
जेहन दारों से रोजी छीन बैठे हैं सियासत दां ।
है सीना तान के बैठी ये बेकारी नही जाती ।।
चमन तकसीम करने का इरादा जो लिए बैठा।
रोजे में कबूली उसकी इफ़्तारी नहीं जाती ।।
बहुत टुकड़ों में तुमने काटना चाहा हमे अक्सर ।
तिरंगे से मिली मुझको ये खुद्दारी नहीं जाती ।।
वो दहशत गर्द हिन्दू न मुसलमाँ न ईसाई है ।
हुकूमत हो जो शैतानी तो मक्कारी नहीं जाती ।।
तू हिंदुस्तान से आजाद होने का तकाजा रख ।
नज़र से गिर के भी बेशर्म मुख्तारी नही जाती ।।
मदरसे जो पढ़ाते पाठ दहशत गर्द का दिल्ली ।
रियायत से कभी इनपर महामारी नहीं जाती ।।
वो जिम्मेदारियों का हर लबादा फेंक बैठा है ।
नौकरी यूं बड़े सस्ते में सरकारी नहीं जाती ।।
कालिख रोज धो चेहरे से पर मिटती नहीं है ये ।
बयानों को बदलने से तो दुस्वारी नहीं जाती ।।
होश में आ शहीदों से गुनाहों पर तू कर तौबा ।।
दुश्मन ए हिन्द तेरी क्यूँ नशाकारी नहीं जाती ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
लाज़बाब
बहुत खूब !
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