ग़ज़ल : हम नेकियाँ करके भी गुनहगार हो गये
हम नेकियाँ करके भी गुनहग़ार हो गये।
करते रहे दगा वो फिर भी प्यार हो गये॥
बनाते हैं रिश्ते अब ज़रूरत के हिसाब से।
वो दिल की नहीं सुनते समझदार हो गये॥
गुल सूख रहे हैं वफा के और क्या कहूं।
वो ख़ारों की चाहत के तल़बग़ार हो गये॥
जब वक्त बदलता है बदलता है बहुत कुछ।
पर रिश्ते इतने बदले कि व्यापार हो गये॥
ना तीर ना तलवार ना खंजर चलाया पर।
जहरीले थे अल्फ़ाज दिल के पार हो गये॥
हम पेड़ उसूलों का बनकर सूखते रहे।
वो करके बदी देखो आबसार हो गये॥
हो सके तो जाल से ख़ुद को बचा ‘बंसल’।
मतलब के रिश्ते जग में बेशुमार हो गये॥
— सतीश बंसल
अति सुंदर.
आभार आद. लीला जी..
बहुत सुंदर ग़ज़ल !
बहुत आभार आद. विजय जी…
बहुत आभार आद. विजय जी…