ग़ज़ल
चाहतें चाह बन जाती, अजनवी राह बन जाती
मिली ये जिंदगी कैसी, मुकद्दर छांह बन जाती
पारस ढूँढने निकला, उठा बोझा पहाड़ों का
बांधे पाँव की बेंड़ी, कनक री, राह बन जाती॥
मगर देखों ये भटकन, यहाँ उन्माद की राहें
मंज़िले मौत टकराती, सिसकी आह बन जाती॥
उफनती मौज दरियाइ, डरा पाती नहीं जिसको
लहरें चूम लेते दिल, तमन्ना थाह बन जाती॥
है ये हीर की रांझा, दिवानी मजनू की लैला
पलटो देख लो पन्ना, गज़लें गवाह बन जाती॥
देखों घर बसा बैठी, पराई नात की चिड़ियाँ
उड़ा हाथों से कंकड़, तपिस ही दाह बन जाती॥
जिसने कूकना सीखा, भली वो उड़ गई कोयल
अगर रुक कक्हरा पढ़ती, नई दरगाह बन जाती॥
बचे तिनका न डाली पर, न कोई शाख शरमाए
पपीहा पी-पी, पी पानी, पिया पर-वाह बन जाती॥
— महातम मिश्र (गौतम)
बहुत बढियाँ गज़ल
उत्तम ग़ज़ल !
सादर धन्यवाद आदरणीय विजय सर जी, आभार महोदय
सादर धन्यवाद आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी, आभार महोदया