ग़ज़ल
सियासत वो पहेली है कि जिसका हल नहीं कोई,
यहां जो आज साथी है वो अपना कल नहीं कोई
बस अपनी जेब भरने को सभी नेता सयाने हैं,
मुल्क पे वार दे खुद को इतना पागल नहीं कोई
गद्दारी हो मक्कारी हो या फिर चापलूसी हो,
जो इसमें काम ना आए वैसा छल नहीं कोई
भेड़ की खाल ओढ़े घूमते हैं भेड़िए हर ओर,
मैं कैसे मान लूँ शहरों में अब जंगल नहीं कोई
जाम हाथों में पकड़ा तो है इन्होंने मगर इसमें,
खून है बेगुनाहों का ये गंगाजल नहीं कोई
गया इक बार जो इसमें वापिस फिर नहीं निकला,
दुनिया में इस जैसी कहीं दल-दल नहीं कोई
— भरत मल्होत्रा