ज़िंदगी
ज़िंदगी
रेल की पटरियों की तरह
कर्म और कर्त्तव्य की तरह समानान्तर
मन के विचारो की तरह उलझी हुई
आंधी पानी तूफ़ान धूप झेलती हुई,
भारी भरकम जिम्मेवारी का बोझ सहती हुई,
चुप चाप चली जा रही है
यहाँ से वहां , न जाने कहाँ से कहाँ .
कौन सी पटरी पर कौनसी ट्रेन
कौनसी फरियाद कौनसी ज़रुरत
सब कुछ संचालित है
उस दूर बैठे “रिमोट कंट्रोल ” के हाथ,
और सब को मंज़िल तक पहुंचाती,
यह पटरियां ,
उस मज़बूर इंसान की ज़िदगी की तरह,
जिसकी एक पटरी है परिवार और दूसरी सरकार,
दोनों को बराबर झेलता है आदमी —
रेल की पटरियों की तरह
कर्म और कर्त्तव्य की तरह समानान्तर.
— जय प्रकाश भाटिया
वाह वाह !
वाह वाह !
सुंदर