कविता : स्त्री यानि औरत
स्त्री यानि औरत
जिस की मजबूरी है
घर की आमदनी बढ़ाना या
आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना
इसी लिए निकलना पड़ता है उसे
घर से सुबह सवेरे जल्दी ही
सब की इच्छाएं पूरी करते हुए
टिफिन, टाई, रुमाल, जुराब और
जरूरी चीजें संभलवा कर
फिर भागना पड़ता है उसे
अपना नाश्ता छोड़ कर
भीड़ भरे वाहनों में घुसने के लिए
अपने खाली से पर्स
औ दूसरे सामान के साथ
साडी और साडी के पल्लू को सम्भालते २
आधुनिकता और मजबूरी के बोझ को
साथ २ ढोते हुए ।
इसी तरह आती है वह शाम को
सारा बोझ ढो कर
जो और भारी हो जाता है घर पहुँचते २
और उतरता भी नही है
अन्य सामान की तरह मन से
घर आने पर भी
अपितु और बढ़ जाता है वह
दिन प्रति दिन यानि हर दिन
दुगना हो कर ॥
— डॉ वेद व्यथित
बढ़िया कविता !
बढ़िया कविता !