लघुकथा : असली नकली
मनोहर बहुत दिनों से ससुराल न जा पाया था। उसके ससुर का स्वास्थ्य कुछ ढीला ही चल रहा था इसलिए वे उससे आ कर मिलने का बार-बार आग्रह कर रहे थे। मौका मिलते ही वह अपनी पत्नी महक के साथ ससुराल चल दिया।
बातों ही बातों में ससुर जी बोले- ‘मैंने ज़िंदगी के खास-खास काम पूरे कर लिए हैं। चाहता हूँ, थोड़े–बहुत जो बचे हैं उनसे भी निबट जाऊँ। मेरे पास बैंक की दो एफ.डी॰, महक बिटिया के नाम हैं। इसके साथ साथ उसकी जन्मपत्री भी है। इन दोनों को अब तुम सँभालो।’
‘जन्मपत्री का मैं क्या करूंगा । मेरी शादी में मिलवाने के लिए जो आपने भेजी थी वह तो मेरे ही पास है।’
‘इसको भी रख लो। शायद कभी काम आ जाए।’
जन्मपत्री पर मनोहर ने एक सरसरी निगाह डाली तो कुछ सोच में पड़ गया और बोला- ‘आपने जो मिलवाने के लिए जन्मपत्री भेजी थी वह तो इससे अलग है।’
‘हाँ, वह नकली थी और यह असली है।’ मनोहर का मुंह खुला का खुला रह गया। कौतूहल से उनकी आँखें ससुर जी पर टिक गईं।
‘असल में जन्मपत्री मिलवाने में न मैं विश्वास करता हूँ और न तुम्हारे पिता जी। पर तुम्हारी सासु माँ ने ऐलान कर दिया कि जन्मपत्री न मिलने पर तुम दोनों की शादी नहीं होगी। तुम मुझे बहुत पसंद थे और मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारा रिश्ता हाथ से निकल जाए। मैंने यह समस्या जब अपने पंडित महाराज को बताई तो उन्होंने हँसते हुए कहा- अजी इस समस्या को सुलझाना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है। ऐसी जन्मपत्री बनाऊँगा कि 100 में 90 गुण तो मिल ही जाएंगे। बस लड़के की जन्मपत्री दे दीजिए।’
‘मैंने फटाफट तुम्हारे पिता जी से जन्मपत्री मँगवाई और पंडित जी के सुपुर्द कर दी। पंडित जी ने तुम्हारी जन्मपत्री सामने रखकर महक की ऐसी जन्मपत्री बनाई कि गुण मिलते ही चले गए। वही मैंने तुम्हारे पिताजी को भेज दी। बस हो गई शादी।’
दामाद के चेहरे पर आते जाते रंगों को पढ़ने एक क्षण ससुर जी रुके और फिर पूछा- ‘तुम्हारे वैवाहिक जीवन में कोई अड़चन तो नहीं आई?’
दामाद ससुर को कनखियों से देख रहा था । उसके चेहरे पर मंद मंद हास्य की रेखाएं झिलमिला उठी।
— सुधा भार्गव
प्रिय सखी सुधा जी, अति सुंदर. आप सुधा विजयवर्गीय भी तो नहीं हैं, जो बचपन में मेरी सहेली थी. वह भी बचपन से लेखिका थी. कभी अपना नाम सुधा भार्गव लिखती थी कभी सुधा विजयवर्गीय. वह कक्षा 8-9-10 में मेरे साथ पढ़ती थी.
प्रिय सखी सुधा जी, अति सुंदर. आप सुधा विजयवर्गीय भी तो नहीं हैं, जो बचपन में मेरी सहेली थी. वह भी बचपन से लेखिका थी. कभी अपना नाम सुधा भार्गव लिखती थी कभी सुधा विजयवर्गीय. वह कक्षा 8-9-10 में मेरे साथ पढ़ती थी.
हा हा हा हा ! अन्धविश्वास से लड़ने का इअसे अच्छा उपाय दूसरा नहीं.
प्रिय सखी सुधा जी, अति प्रेरक कथा के लिए आभार!
वाह ! इतना अच्छा काम किया और आख़री सांस तक इस की भनक नहीं पड़ने दी ,अब तो सारे संसार को पता चल जाए ,किया फर्क पड़ेगा !
सार्थक लेखन
प्रेरक कहानी