गीत : मुझको ग़द्दारी लगती है
उनकी नसों में दौड़ रही मुझको गद्दारी लगती है
जिनको मेरे देश की सेना बलात्कारी लगती है
नाचने की औकात तक नहीं है जिनकी यहां सड़कों पर
वो हिजड़े तोहमत लगा रहे हैं वीर बांकुरे मर्दों पर
बहुत आसान है अपने घर के आँगन से कुछ भी कहना
तुमको क्या मालूम क्या होता है सीमाओं पर रहना
दिल बीवी-बच्चों की एक झलक को तरसा जाता है
दूर-दूर तक जब कोई भी अपना नज़र न आता है
सर्वस्व मान के देश को तब ये एक आह ना भरते हैं
देश की खातिर जीते हैं और देश की खातिर मरते हैं
अगर देखना है तुमको कितना दम है इस वर्दी में
एक दिन तो गुज़ार के देखो सियाचिन की सर्दी में
इक घंटे में नानी-दादी याद तुम्हें आ जाएगी
शाम तक तो आत्मा नर्क की ओर कूच कर जाएगी
तब तुमको होगा मालूम कि सैनिक किसको कहते हैं
देश के रक्षक कितनी मुश्किल हालातों में रहते हैं
पर तुमसे ये ना होगा तुम्हें सिर्फ भौंकना आता है
उस थाली में छेद ना कर तू जिस थाली में खाता है
देश को, देश की सेना को तुम गाली देना बंद करो
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की नाटकबाजी बंद करो
पूरा ना होने देंगे दुश्मन के नापाक इरादों को
चुन-चुनकर मारेंगे इन जयचंदों की औलादों को
हिंद की धरती पर रहकर जो गीत विदेशी गाएँगे
चाहे जितने ताकतवर हों अब ना बख्शे जाएँगे
— भरत मल्होत्रा
बहुत शानदार गीत !
बहुत शानदार गीत !