रूआंसा बचपन
हंसते खेलते बंटी के बचपन पर तो जैसे कभी खत्म न होने वाले दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था। पिता की अकस्मात मौत ने बंटी और उसके भाई बहनों से बहुत कुछ छीन लिया था। बंटी अभी सिर्फ दस साल का था। पूरे घर की ज़िम्मेदारी उठाने की क्षमता शायद ही उसमें थी। पर कहते हैं न जब विपदा आती है तो सब कुछ समझ आ जाता है। बंटी के माता पिता घर से कुछ ही दूरी पर एक फैक्टरी में काम करते थे और घर का खर्च बच्चों की पढ़ाई जैसे तैसे पूरी हो जाती थी। पर अब बंटी की मां की कमाई से घर का खर्च चलाना और बच्चों की पढ़ाई नामुमकिन थी। न चाहते हुए भी मां ने दिल पर पत्थर रख कर बंटी को साफ शब्दों में कह दिया था कि अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारे छोटे भाई बहन की पढ़ाई और घर का खर्च चल सके तो तुम्हें पढ़ाई छोड़कर कल से मेरे साथ काम पर चलना होगा। फैक्टरी के मालिक ने भी बंटी की मां को यही सलाह दी थी कि कल से वो अपने बेटे को भी काम पर ले आए। बंटी क्योंकि छोटा था अभी कानून के बारे में और मजदूरी के बारे में इतना नहीं जानता था। फैक्टरी का मालिक बंटी से खूब डट कर काम लेता था क्योंकि बच्चे बिना थके ज्यादा काम कर सकते हैं। भाग दौड़ भी बहुत होती थी और काम भी औरों के मुकाबले ज्यादा लिया जाता था। साथ में बंटी की मां को ऐहसान जताया जाता था कि इस पर तरस खाकर काम पर रखा है यह कितना ही काम कर पाएगा। मजदूरी भी औरों के मुकाबले कम मिलती थी। मालिक को यह फायदे का सौदा दिखता था। कभी कभी अगर बंटी से थोड़ा नुकसान हो जाता तो डांट के साथ साथ कभी कभी मालिक थप्पड़ भी लगा देता था। बंटी के कोमल गाल लाल हो जाते पर वो कुछ न कहता। बंटी के मन की स्थिति को कोई समझ नहीं पा रहा था। वह भी बाकि बच्चों की तरह पढ़ना और खूब खेलना चाहता था। अपने बचपन को खुलकर बेफिक्र जीना चाहता था। पर उसके नाज़ुक कंधों पर ज़िम्मेदारियों का बोझ डाल दिया गया था। जिसे वह चाहकर भी नहीं उतार सकता था और उस बोझ तले उसका बचपन रूआंसा हो गया था।।।
कामनी गुप्ता ***
कड़वा सच …. समाज सुधरने का नाम नहीं ले रहा है
सार्थक लेखन
धन्यवाद जी
यथार्थ को व्यक्त करती लघुकथा !
धन्यवाद सर जी