क्या हमारा पहले एक व अनेक बार मोक्ष हुआ है?
ओ३म्
मनुष्य योनि मोक्ष का द्वार है। मोक्ष दुःखों से सर्वथा निवृत्ति और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति को कहते हैं। मनुष्य व अन्य प्राणियों की आत्माओं का जन्म उनके पूर्व मुनष्य जन्मों के शुभ व अशुभ कर्मों के फलों के भोग के लिए होता है। ऐसी शास्त्रीय मान्यता है कि जब मनुष्य के शुभ कर्म अशुभ कर्मों की अपेक्षा 50 प्रतिशत से अधिक होते हैं तो मनुष्य जन्म और जब शुभ कर्म 50 प्रतिशत से कम होते हैं तो अन्य योनियों में कर्मानुसार जन्म होता है। अब यदि इस ईश्वरीय व्यवस्था को जानकर कोई मनुष्य दृण संकल्प कर शुभ व अशुभ कर्मों का ज्ञान प्राप्त कर ले और अशुभ कर्म करना छोड़ दे तथा सभी शुभ कर्म यथा ईश्वरोपासना-योगाभ्यास-ध्यान व समाधि का अभ्यास, दैनिक अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ सहित राष्ट्र धर्म का पालन और परोपकार व सेवा आदि के कर्म करे, अज्ञान, अन्धविश्वास और कुरीतियों से सर्वथा पृथक रहे तो क्या होगा? इसका एक ही परिणाम है कि उसका मनुष्य जन्म होगा। पशु व पक्षियों आदि निकृष्ट प्राणी योनियों में इस लिए जन्म नहीं होगा क्योंकि उसके शुभ कर्म 50 प्रतिशत कर्मों से कहीं अधिक हैं। अब यदि वह व अनेक मनुष्य वेदोक्त कर्म-फल सिद्धान्त को जानकर अपने सभी शुभ कर्म ज्ञानपूर्वक करते है और उसमें फल की आसक्ति का त्याग करते हुए करते हैं तो उसका मोक्ष होना निश्चित होता है। ऐसे मनुष्य की अवस्था को जीवनमुक्त अवस्था कहते हैं जो उसे मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्रदान कराती है। यह अवस्था एक जन्म वा अनेक जन्मों में प्राप्त हो सकती है।
सृष्टि में ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि, नित्य व अनुत्पन्न हैं। इसका य ह अर्थ भी है कि हमारी इस सृष्टि से पूर्व अनन्त बार यह सृष्टि बनी और प्रलय को प्राप्त हुई है और आगे भी ऐसा ही होगा। सृष्टि और प्रलय का यह प्रवाह सदैव चलता रहेगा। यदि हम एक ही सृष्टि के 4.32 अरब वर्षों की अवधि की बात करें और यह अनुमान व कल्पना करें कि हर बार हम मनुष्य बने हों और हमारी औसत आयु 100 वर्ष रही हो तब भी एक ही सृष्टि काल में हमारे 4 करोड़ 32 लाख बार जन्म व मृत्यु होना निश्चित होता है। इस सृष्टि से पूर्व अनन्त बार स़ृष्टि होने के सिद्धान्त से तो हमारे अब तक अनन्त जन्म हो चुके हैं, अनुमान होता है। अतः हम सब मनुष्य व जीवात्माओं के अनन्त जन्म होने से अनेक बार हमारा मोक्ष होना भी सम्भव है। इस अनुमान से यह भी पता चलता है कि शायद ही कोई जीवयोनि ऐसा हो जिसमें हमारा कई-कई बार जन्म और मुत्यु न हुई हो। हमारे विद्वान बताते हैं कि मनुष्य को मृत्यु से जो भय लगता है उसका मुख्य कारण उसका मृत्यु का पुराना संस्कार है। प्रत्येक जीवात्मा अपने पूर्व जन्मों में अनेक बार मर चुका है, इसलिए पूर्व जन्मों के संस्कारों व स्मृति के कारण वह इस जन्म में मरने से डरता है। यदि जीवात्मा का पूर्व जन्म न होता तो वह मरने से क्यों डरता क्योंकि जिसका अनुभव न हो उसके प्रति प्रसन्नता व भय नहीं हुआ करता। अतः हमारी आत्मा का अनेक बार मोक्ष होना अनुमान के आधार पर सम्भव व सिद्ध है।
अब हम एक प्रश्न पर और विचार करते हैं कि जब हमारा अनेक बार मोक्ष हो चुका है और शास्त्रीय आधार पर 36,000 बार सृष्टि होने और प्रलय के काल तक की अवधि के 8.64 अरब वर्षों तक मोक्ष में रह चुके हैं तो मोक्ष के बाद जन्म होने पर हम व अन्य प्राणी व जीवात्मायें शुभ कर्मों का त्याग और बुरे कर्मों को करके इतने गिर गये कि वह आज मनुष्य व अन्य योनियों में पहुंच गये हैं जहां उनको नानाविध असहनीय दुःख भोगने पड़ रहे हैं और फिर भी वह स्वार्थान्ध होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। शायद इसी लिए हमने अनेक वैदिक विद्वानों के प्रवचनों में सुना है कि मनुष्य के गिरने की भी कोई सीमा नहीं है, यह सिद्ध हो रहा है और महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायी कुछ विद्वानों को देखकर यह भी अनुभव होता है कि मनुष्य की उन्नति व ऊपर उठने की भी कोई सीमा नहीं है। आज का मनुष्य कितना गिर चुका है, यह इस बात से ज्ञात होता है कि यदि कोई किसी मनुष्य को मोक्ष व जीवन की उन्नति विषयक वैदिक सत्य विचारों से परिचित कराना चाहें तो वह सुनने को तैयार नहीं होता है। आज सभी मनुष्य धर्म-मत-मजहब-गुरु-रिलीजन आदि में बंटे हुए हैं और अपने अपने मत में सन्तुष्ट हैं। उन्हें जो बताया गया है उसमें उन्हें कभी शंका ही नहीं होती जबकि वैदिक दृष्टि से विचार करने पर उनकी मान्यतायें असत्य वा अधूरी पाई जाती हैं। इसे संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य कह सकते हैं कि मनुष्य जिसको परमात्मा ने सत्य व असत्य के विवेक की बुद्धि दी हुई है वह अपने यथार्थ हित मोक्ष व जीवनोन्नति की बातों को भी जानबूझकर दृष्टि से ओझल करता है। इसका परिणाम जो हो सकता है वह वैदिक मत के लोग भली प्रकार से जानते हैं। इतना सब होते हुए भी महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) अपने समय में सत्य वैदिक मत वा धर्म के प्रचार के इस महान कार्य में प्रवृत्त हुए थे और उन्होंने अपने प्राणों की चिन्ता न कर अपना एक-एक क्षण मनुष्यों के कल्याण के लिए समर्पित किया था। धन्य हैं महर्षि दयानन्द व उनकी पहली व दूसरी पीढ़ी के अनुयायी जिन्होंने एक आदर्श उपस्थित किया था। आज भी हमारी दृष्टि में अनेक विज्ञ लोग इस मोक्ष मार्ग के पथ के अनुगामी हैं जिनमें हम स्वामी सत्यपति जी, स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी और श्री सत्यजित् आर्य जी के नाम ले सकते हैं। हम अनुभव करते हैं कि आज का समय भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति व सुख भोग का है। लोगों की प्रवृत्ति सत्य धर्म व उसके पालन में बहुत कम है। हमें लगता है कि अब लोग भौतिकवाद से उबने लगे हैं। आने वाला समय आध्यात्मवाद अर्थात् यौगिक जीवन व इससे मानसिक सुख शान्ति प्राप्त करने का होगा। स्वामी रामदेव जी का आन्दोलन भी लोगों को इसी दिशा में आगे बढ़ा रहा है। यह भी निश्चय है कि बड़े से बड़ा भौतिक सुख आध्यात्मिक आनन्द, ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द, से बड़ा नहीं हो सकता। अतः वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार हर युग व समय की आवश्यकता है।
लेख को विराम देने से पूर्व हम महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में वर्णित मुक्ति में बिना शरीर के आनन्द भोगने के समाधान विषयक विचारों को प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते हैं कि जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है वैसे परमेश्वर के आधार मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक लोकान्तरों मे अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं, और नही दीखते उन सब मे घूमता है। वह सब पदार्थों को जो कि उस के ज्ञान के आगे हैं सब को देखता है। जितना ज्ञान अधिक होता है उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उस को सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यह जानने योग्य है कि मनुष्य जब तक मुक्त नहीं होगा तब तक जन्म मरण व नाना योनियों में भ्रमण करेगा जिससे वह दुःखों से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सकता। मुक्ति किसी भी मत व मतान्तर वाले को प्राप्त हो सकती है। इसके लिए मोक्ष के साधनों को अपनाना होगा जो केवल वेदों व वैदिक जीवन पद्धति में ही उपलब्ध हैं। हम मनुष्य हैं, अतः हम सबको मनन कर हमें जीवन-मृत्यु व मोक्ष के रहस्य को यथार्थ रूप में जान व समझकर अपने दुःखों का अधिकाधिक निवारण करने हेतु ययोग्य प्रयास करना समीचीन है।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमैल सिंह जी। इतना कहने को मन हो रहा है। संसार को ईश्वर वा आत्मा की सत्ता का सिद्धांत वेदों से मनुष्य जाति को मिला और मोक्ष भी वेदों को मनुष्य जाती को बहुत बड़ी देन हैं। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, हमने मृत्यु और मोक्ष के बारे में आपसे बहुत-सी ऐसी बातें सीखीं, जिनका हमें अब तक ज्ञान नहीं था. अति सुंदर ज्ञानमय आलेख के लिए आभार.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी। जिस प्रकार जन्म लेने वाले की मृत्यु होना निश्चित है उसी प्रकार से बंधन में फंसे मनुष्य को विवेक की प्राप्ति होने पर बंधनरहित अर्थात मुक्त होना निश्चित है। सजा पूरी कर लेने पर सभी लोग जेल से छोड़ दिए जाते हैं ऐसे ही मोक्ष है। मोक्ष ईश्वरोपासना सहित सद्कर्मो व ईश्वर साक्षात्कार आदि प्रयत्नों का परिणाम होता है। सादर।