गीत : कायर दिल्ली वालों को
(दिल्ली में बांग्लादेशी मुसलमानों की भीड़ द्वारा मारे गए बेकसूर डॉ पंकज नारंग की घटना पर सभी को जगाने का प्रयास करती मेरी कविता)
दरबारों में ख़ामोशी है, हल ना मिला सवालों को,
आज दादरी चिढ़ा रही है, कायर दिल्ली वालों को
एक मुसलमाँ के मरने पर, सब के सब हिल जाते हैं,
जब हिन्दू का बेटा मरता, होंठ सभी सिल जाते हैं
क्या कसूर था उसका, सबने मिलकर शोर मचाया था
मस्ज़िद के अंदर क्या उसने मांस सूअर का खाया था?
पैगम्बर को गाली दी थी? या कुरान को फाड़ा था?
मुस्लिम लड़की को छेड़ा था? या घर बार उजाड़ा था?
वो तो एक चिकित्सक भर था,मानव धर्म निभाता था,
हिन्दू और मुसलमानो में फर्क नहीं कर पाता था
उसका बस कसूर ये ही था, राष्ट्रप्रेम में झूल गया
बंगलादेश मैच में हारा, और ख़ुशी से फूल गया
भाईचारे की होली पर, कैसा ये उपहार दिया?
अमन पसंद भीड़ ने उसको पीट पीट कर मार दिया
कहाँ गये अब राहुल भैया, कहाँ केजरीवाल गए,
किस बिल में आखिर छिपने को, कायर सभी दलाल गए
रोती रहे दादरी पर वो चैनल वाले कहाँ गये?
कहाँ गया ढोंगी रवीश, वो खबर मसाले कहाँ गए
काण्ड दादरी पर सब को अवसाद दिखाई देता था,
वो अख़लाक़ मियां सबका दामाद दिखाई देता था
आज हमें लगता है खुश हैं इक हिन्दू के मरने पर,
कोई नहीं आज बैठेगा शायद फिर से धरने पर
टोपी वालों के खरोंच भी आये तो चिल्लाते हैं,
हिन्दू कहीं मरे तो ये अवकाश मनाने जाते हैं
देशवासियो कब जागोगे? इंतज़ार मत और करो,
कहाँ खड़े हो दिल्ली वालों, कुछ हालत पर गौर करो
मत अपना मुँह मीठा करिये, ज़हर सने रसगुल्लों से,
आस अमन की कभी न रखिये, इन ज़ाहिल कठमुल्लों से
एक अगर न हुए, घरों से रोज उतारे जायेंगे,
किसी रोज हम सभी भीड़ के हाथों मारे जायेंगे
या तो फिर गुलाम हो जाना, या आखिर तक लड़ लेना,
सारे घर को ज़हर खिलाना, या फिर कलमा पढ़ लेना
——कवि गौरव चौहान