कहानी

कहानी : एक थी सरोज…

दूरदर्शन पर रियलिटी शो चल रहा था.

उसमे सायली जो ५०% विकलांग है. न पूरा बोल पाती है और ना ही दिमाग काम करता है सो पढ़ नही पाई,पर उसको डांस का शौक था जूनून की हद तक ,वो नाचती भी थी और नाचना सिखाती भी थी ,उसके माँता पिताजी का कहना था की सायली हम पर बोझ नही हमारी हिम्मत है सहारा है !

अनुष्का शर्मा जिसे ट्रेन से नीचे फेंक दिया ,एक ,पैर काटना पड़ा पर उसने हिम्मत नही हारी और एक पैर से एवरेस्ट पर चढ़ी .ये ही नही अख़बार में आये दिन खबरे आती हे की फला आँखे नही थी और एक के दोनों हाथ नही थे पर पढाई का जज्बा ऐसा की सुनकर पढ़ी और दुसरे को बोल कर लिखाया और पेपर दिए टॉप किया ,कोई पेरो से लिखने का अभ्यास करलेता हे तो कोई मुंह में बरश दबा पेंटिंग करती हे !
सुधा चन्देर्न नर्तकी दोनों पर ट्रेन एक्सीडेंट में गवा चुकी ,पर लकड़ी के नकली पेरो की सहायता से दोबारा नेर्त्य का अभ्यास किया पर सफल हुई! जयपुर का एक लड़का जिसकी दोनों किडनी फेल थी डायलेसिस पर होता था पर १२वीं का टोपर बना ! जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ती हु तो होसले को सलाम करती हु ,की उनका होसला या जज्बा, जूनून ही था कुछ करने का की उन्होंने अपनी शारीरिक विकलांगता को ललकारा ,चुनोती दी और मनचाहा मुकाम हासिल किया

अगेर किसी वजह से कोई पढ़ नही पाए तो क्या, और भी कई रस्ते हे जिनपर अम्ल कर आगे बढ़ा जा सकता हे जेसे म्हारास्टर के जलगाँव जिनको गरीबी के कर्ण पढाई १ क्लास से ही छोडनी पड़ी स्कूल जाना नसीब नही हुवा मगेर दिमाग तेज था सो उन्होंने घर बेठे ही कई छोटे मोटे अविष्कार कर डाले रास्टर पति द्वारा पुरुष्कृत भी हुवे चलती फिरती चक्की बनाईऔर अपनी पहिचान बनाई आत्म निर्भर हुवे ,इन सबके होसलो ने ही इनको कामयाबी के मुकाम तक पहुचाया इन्होने अपनों शारीरिक कमजोरियों को पीछे छोड़ दिया और सफलता हासिल की.

जब जब भी इसी कोई खबर पढ़ती हु तो मन जहाँ खुश होता हे वहीं आँखों के आगे सरोज का चेहरा घूम जाता हे की काश सरोज ने भी अपनी कमजोरी पर विजय पाई होती ,सरोज जो माँ पिताजी और सभी भाई बहनों की लाडली ,गोरी चिट्टी बड़ी बड़ी आँखों वाली !सरोज की बदकिस्मती की उसको बचपन में १ साल की उमर में चेचक ने आ घेराजिसके फलशवरूप उसके एक पैर में चलते समय लचक आती थी , सामान्य लोगो से उसकी चाल थोड़ी अलग थी भिन्न थी पर ये कोई इतनी बड़ी विकलांगता नही थी जो नजरअंदाज नही की जा सकती थी !
घर में सभी पढ़े लिखे थे उसको अच्छा माहोल और प्रोत्साहन मिला पढने का ,मगेर केवल प्रोत्साहन माहोल से ही सब कुछ नही होता माँ बाप पर्यास कर सकते हे पर याद करना बढना और लग्न तो खुद की ही कम आती हे लाख समझाने और पर्यास करने पर भी उसने पढने में कोई रूचि नही दिखाई

८वीं तक तो जेसे तेसे सकूल वालो ने पास कर दियाक्योकि वो जानते थे की इसके घर में सब पढ़े लिखे हे और पढाई का माहोल हे ये समझ जाएगी पढ़ लेगी ,मगेर बहुत समझाने पर भी वो नही पढ़ी ९थ में ३-४ बार फेल होने पर टीचर ने सरोज के पिताजी को बुला कर माफ़ी मांग ली की मेरी सकूल का नाम खराब होता हे और इस तरह सरोज का सकूल से नाता टूट गया ,पर उसके पिताजी ने हिम्मत नही प्राइवेट इम्तिहान दिलवाई ,मगेर नतीजा वही धाक के ३ पात ,हर पर्यास विफल रहा ,मगेर फिर भी उन्होंने हिम्मत नही हारी और सोचा न सही पढाई कोई और हुनर सिख देता हु सिलाई कढाई ताकि ये अपने पेरो पर खड़ी हो आत्म्निर्भेर बन जाये किसी की मोहताज न रहे काश की सरोज ने पिताजी की भावनावो को समझा होता ,मगेर नही ,उसने तो कुछ न सिखने की ठान ली थी !

इसी बीच उसकी उमर बढती जा रही थी शादी लायक हो गई हार कर उन्होंने उसकी शादी करने की सोची ,उनकी समाज में इज्जत थी सो अछे गरीब घर का लड़का देख कर उसकी शादी करदी ,लड़के को नोकरी दिलादी घर से लेकर गेर्हस्थी का सारा साजो सामान जुटा दिया लड़का भला था सरोज को बहुत प्यार और आराम से रखता कुछ काम नही करवाता ,बिठाये रखता खुद ही सब कर लेता

सरोज बहुत खुश थी उसको खुश देख कर,घर वाले भी खुश की चलो चिंता मिटी , सरोज सेट हो गई जब मिलने जाते तो वो बेठी टी.वि देखती मिलती, मगेर ये ख़ुशी उसके लिए कितनी घातक रही ,जल्दी ही सामने आ गया ,ज्यादा देर बेठी रहने कोई काम नही करने से वजन तो बढ़ा ही छोटी सी उमर में कई बीमारियों ने घेर लिया, तब फिर से समझाया की थोडा चला फिर कर ये ठीक नही परजितना उसको समझाते वो नाराज होती ,आपको क्या हे ? में ठीक हु ,सब चुप ,!मगेर ये उसको कोण समझाए की ये शारीर भी एक मशीन की तरह है अगर मशीन चलावो नही तो उसके पुर्जे जाम हो जाते है उसी तरह शरीर भी ,उसका आराम तलब होना बेठे रहना कितना घातक हे ये बात उसको समझ आई तब तक बहुत देर हो गई थी ,धीरे धीरे पति भी लापरवाह हो गया. यार दोस्तों में बैठा रहता और वो अकेली, हैरान परेशान रोती रहती क्योकि आब तो अपने देनिक क्रिया कलाप करने के लिए भी वो उनकी मोहताज थी. जीवन से निराश हताश हो गई ,ये ज्यादा नही चला हताशा नए नये रोगों के कारण एक दिन वो हम सब को छोड़ कर एक ईसी दुनिया में चली गई जहाँ से कोई वापस नही आता.

कहते हे दुनिया में आने और जाने का समय उपर वाला तय करता हे पर उसको कुछ हद तक सुधारा तो जा सकता हे सबसे छोटी असमय चल बसी सरोज की ये असमय मोत और अजीबो गरीब हालत देख कर मन में सवाल उठता की क्या सरोज केवल शारीरिक रूप से ही विकलांग थी ,नही वो मानसिक रूप से विकलांग थी और वो मानसिक विकलांगता उस पर इस कदर हावी थी की सोचने समझने की शक्ति नही रही और नतीजतन जीवन से ही हाथ धोना पड़ा घर में सब पढ़े लिखे और सहयोगी इस बात से प्रेरणा लेने की बजाय वो सबको दुश्मन समझती की मेरे पीछे पड़े रहतेहै बजाय कुढने के अपने दिमाग को किसी काम में लगती खुद को व्यस्त करती तो शायद आखिरी समय जो लाचारी हताशा थी वो नही होती १सरोज तो चली गई मगेर अपने पीछे एक सवाल छोड़ गई की विकलांगता शरीर की इतनी भरी नही होती किसी अंग की कमी का विकल्पनिकल सकता हे और दुनिया में सेकड़ो लोग इसके उदाहरण है जिन्होंने विकलांगता को चुनोती दी कामयाब हुवे बेसहारा नही कइयों का सहारा बने ,मगेर मन की विकलांगता का कोई क्या करे क्योकि किसी नए सहीकहा हे की “मन के हारे हार है ,और मन के जीते जीत” काश कि उसने मन पर विजय पी होती !

गीता पुरोहित

गीता पुरोहित

शिक्षा - हिंदी में एम् ए. तथा पत्रकारिता में डिप्लोमा. सूचना एवं पब्लिक रिलेशन ऑफिस से अवकाशप्राप्त,