मधुगीति : अचानक उष्ण धार जब छोड़े
अचानक उष्ण धार जब छोड़े, ध्यान में मुझको वे रहे जोड़े;
गीले आवरण देख नेत्र मुड़े, इससे उद्विग्न वे हुए थोड़े !
बनाई मुद्रा मुख की कुछ अद्भुत, अजीव भोंह से किए फ़ितरत;
सात्विकी राग था उन्हें आया, स्वरूप उनका मधुर मन भाया !
भाव ब्राह्मी में लगे अति अप्रतिम, कृपामय झाँकते थे अन्तर्तम;
चाहते धारणा थी चित्त रहे, अहं औ महत मिले सगुण रहे !
प्रवाह उनका जब प्रकृति छोड़े, देह मन उनका साथ ना छोड़े;
हुए तल्लीन जब रहें ताके, विश्व उनका हमें नहीं दीखे !
नहीं वे चाहते कोई दूरी, मयूरी नाच लखे मन हारी;
‘मधु’ उर मोर बने सुर छेड़े, नृत्य नटवर का निरख नयन जुड़े !
— गोपाल बघेल ‘मधु’