कविता : आज़ाद परिंदा
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
उडूं वहां तक,जहाँ तलाक हो,
कल्पनाओ का गगन,
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
बंद आँखों से देखे बहुत है,
देखे नींदों में सुन्दर स्वप्न ,
खुली आँखों से अब देखता जाऊ,
कठिन डगर पे ,न घबराऊ,
अब कुछ ऐसा करू जतन,
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
भूल जाऊं वो बीती बातें,
याद रखु ,बस दुःख की रातें,
कैसे कटे,वो दुःख भरे दिन ,
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
ठण्ड ठिठुरती , वो सर्द रातें ,
अपने भी साथ कब तक दे पाते,
रोम -रोम में डर बैठा,
आखिर,बना मिटटी तन,
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
भर आई अब काली रातें ,
सुदृढ नहीं वो , खोखली बातें,
जाने,कब निकलेगा कोई चाँद ओजस का,
जो कर दे अमावस को पूनम,
बन आज़ाद परिंदा
आज उड़ना चाह रहा है मेरा मन,
— नवीन श्रोत्रिय ”उत्कर्ष”