नारी सशक्तिकरण : कानून से या हम आप से
आओ चलो चलें हम-तुम साथ-साथ
दर्दे – दिल सुनें, सुनायें पूरी रात |
कुछ तुम समझो, कुछ हम समझें
तब ही होगी खुशियों की बरसात ||
“यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” जैसे उद्घोषक राष्ट्र में नारी के सशक्तिकारण की चर्चा करने के पीछे क्या नारी के अबलेपने की स्थिति को उजागर नहीं करती ? आखिर पूजन के बदले पतन के जिम्मेदार कौन ? इस पर विचार के बिना परिचर्चा अधूरी ही मानी जायगी |
अर्धशतक पूर्व तक मानव समाज की दशा-दिशा औ’ चिन्तन के आधार कुछ और थे, जब नैतिकता और मानवीय मूल्य के आधार पर व्यक्ति समाज परिचालित थे | विद्यालयीय शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा और सफल गार्हस्थ्य जीवन के सूत्र परिवार और समाज द्वारा ज्ञेय होता था | वहीं आजादी के पूर्व से ही शासकों की नजर में हम सभी अन्धविश्वासी और बेबकूफ़ माने जाते रहे | उनकी नजरिये से होशियार और बुद्धिमान तथा सभ्य वे ही लोग रहे, जो उनकी भाषा-भूषा और अपरिपक्व मानसिक विरासत के साथ चले |
ज्ञातव्य हो – जिन विकसित विचारधारा के तहत आज हम नारी के सशक्तिकरण और अधिकार के संदर्भ में विचार करने को प्रेरित हैं, उन्हीं मानसिकता और विचारधारायुक्त समाज में नारी का आस्तित्त्व भोग्या से अधिक और कुछ भी नहीं | जो इस सदी के पांचवें दशक तक, जिस विकसित राष्ट्र को उदाहरण (आईकोन) के रूप में प्रस्तुत करके नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं, वहीं नारियों को बैंकों में खाते तक खोलने के अधिकार तक प्राप्त नहीं थे |
वर्तमान पाश्चात्य विचारधारा को मानक मानें तो माँ-बाप, भाई-बहन, भी क़ानून के तहत ही बनाये जाते हैं | यथा- मदर-इन-लॉ, फादर-इन-लॉ, सिस्टर- इन-लॉ तो पत्नी भी वाइफ-इन-लॉ क्यों नहीं ? और यही मूल कारण है कि उन तथाकथित विकसित समाज में आज भी नारियों को स्वच्छन्दता के अधिकार और सशक्तिकरण का झुनझुना देकर भोग्या के रूप में षड्यंत्रीय कुप्रवृत्ति ही स्पष्टत: उजागर होती है | इन्हीं वैचारिक स्वतन्त्रता और अर्थलोलुपों के बयार में नुमाईशी बनकर रह गयी है और शोषित हो रही हैं आज की नारियाँ |
न जाने कितने कानून बना डाले कानून तोड़नेवाले | ऐसे कई क़ानून आज भी मौजूद हैं, जिस कानून ने देश समाज को विखंडित किया अब सशक्तिकरण के नाम पर घर-परिवार को भी विखंडित कर शोषण की दिशा में प्रयासरत दिखती है |वर्तमान में घटते आदर्श गृहणियों की संख्या और क्षीण होते मानवीय मूल्य, पता नहीं किन स्वप्निल विकास की दिशा दिखाएगा और तब हम विकासित कहलायेंगे |
वर्तमान में, नारी-सशक्तिकरण का विरोधी नहीं पक्षधर होने के नाते भी, कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्रीय चरित्र निर्माण में नारियाँ उपेक्षित नहीं अपेक्षित हैं | जो क़ानून से नहीं, अपितु आपसी समझ-बूझ और सहयोग से ही सम्भव है |ऐसे कानूनों का दुष्परिणाम भी स्पष्ट दृष्टिगत हैं, जिनके कारण पति, पत्नी, बच्चे और वृद्ध बेसहारा अनाथ की जिन्दगी बाल-गृह या वृद्धाश्रम में बिताने को विवश हैं |
उपरोक्त तथ्यों पर विचार के उपरान्त यही सर्वमान्य निष्कर्ष प्राप्त होता है कि नैतिकता के धुप-छाँव तले आपसी विचार-विमर्श से ही पुन: “यत्र नारी पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता” के सिद्धांत का प्रतिपादन तो सम्भव है मगर, क़ानून से कतई नहीं |
— बेबाक बिहारी “श्याम स्नेही”