ग़ज़ल
कभी लफ़्ज़ों, कभी नैनों से, हम पर वार करती हो।
कभी घृणा, कभी नफरत, कभी तुम प्यार करती हो।
वफायें हम भी करते हैं दिखावा भी न करते
मगर हरवार मुझ पर तुम तीरों से वार करती हो।
भुला देता सभी कुछ मैं, तुम्हारी मुस्कराहट पर
हवा होते हैं हर गम फिर, आँखे जब चार करती हो।
भलाई करना सब पर फिर, तुम्हारी नेक सिद्दत है
बुराई को भगाने का, विनय हर बार करती हो।
कभी सजदा नहीं करती, कभी पूजा नहीं करती
दुआए लो गरीबों की, सेवा माँ बाप करती हो।
उन्हें कोई मार नहीं सकता, जिनका रहबर खुदा, खुद हो
जिनको हर वार से महफूज, ईश होशियार करते हो।
— दीपक गांधी
( तीतरा खलीलपुरी)